पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/७७

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बगुला के पंख ७५ 'क्या मतलब ? जब वह चाहती तो क्या उसका खाविन्द हारिज आता 'उसे कुछ भी मालूम नहीं है।' 'तुम्हारे साथ उसका सलूक कैसा है ?' 'उसीकी बदौलत दिल्ली में रह रहा हूं। मेरा तो न कहीं पैर रखने का ठौर था, न खाने को एक घेला। उसीकी बदौलत यह इज़्ज़त की नौकरी मिली है, म्युनिसिपल कमिश्नर भी हो गया हूं। चार बड़े आदमियों से मुलाकात भी हो गई है।' 'तो वह बहुत भला आदमी है। लेकिन तुम्हारी उस औरत से यह मुहब्बत कितने दिन की है ?' 'मैंने तो पहली ही नज़र में जब उसे देखा था, दिल दे दिया था। पर वह भी मुझे चाहती है, यह मुझे मालूम न था।' 'अब मालूम हुआ ?' 'कब?' 'आज सुबह । और आज ही उसे भी मेरी मुहब्बत का राज़ मालूम हुआ। आज मैंने उससे सब कुछ कह दिया।' 'सुनकर बिगड़ी नहीं ?' 'पागल की भांति लड़खड़ाती हुई भाग गई और कमरा बन्द करके पड़ रही । मैं यहां भाग आया।' 'तो अभी बोहनी ही हुई है। कोई हर्ज़ नहीं। अच्छा, यह कहो उसका चाल-चलन कैसा है ? 'निहायत पाकीज़ा । मुझे ऐसा मालूम होता है कि मैं उसे गन्दगी में घसीट रहा हूं। मैं जान गया हूं कि उसका मन मुझपर है, पर वह अपने को बहुत रोकती रही है । आज मैं खुला तो वह भी खुल गई।' 'कुछ कहा उसने ?' 'बस, जब मैंने अपनी मुहब्बत का इजहार किया तो वह रोती हुई मेरे ऊपर गिर गई और जब मैंने शैतान की सवारी की तो ज़बर्दस्ती छुड़ाकर भाग गई। अब नहीं जानता क्या होगा।'