पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/७३

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बगुला के पंख ७१ 'मैंने कहा न, इस वक्त जल्दी में मैं खाली जेब ही चला आया हूं।' 'मैं यह समझ गया था बन्दा-परवर, इसीसे मैंने आपको रोक लिया, आप एक शरीफ आदमी हैं, आपकी इज़्ज़त बच गई । खाली जेब इस कूचे में आने की जो जुर्रत करते हैं, उन्हें गर्दनियां देकर जीने से नीचे धकेल दिया जाता है । आइए।' नवाब कुर्सी से उठ खड़ा हुआ । जुगनू भी उठ खड़ा हुआ । इस वक्त शर्म और क्रोध से उसका बुरा हाल हो रहा था । दोनों रैस्टोरां से बाहर आए । नवाब ने कहा, 'आइए, ज़रा नई दिल्ली की ओर घूम आया जाए, मैं जानता हूं कि इस वक्त आप फुर्सत में हैं। मौसम भी बड़ा सुहावना है।' 'हो सकता है, लेकिन इस वक्त मेरी कहीं भी जाने की इच्छा नहीं है।' 'मेरे मेहरबान दोस्त, आप तो ऐसी टोन में बोल रहे हैं, जैसे मुझसे नाराज़ हों। 'नहीं, मैं नाराज़ नहीं हूं। लेकिन अब मैं जाता हूं।' जुगनू एक ओर को जाने के लिए मुड़ा । परन्तु नवाब ने उसका हाथ पकड़- कर कहा, 'इस कदर बेमुरव्वती ! किबला मेरी आरजू ही समझकर चलिए।' 'भाई, मुझे परेशान न करो । आज सुबह से ही मैं परेशान हूं।' 'यह मैं जानता हूं। इसीसे अर्ज करता हूं कि आपको एक दोस्त की सख्त ज़रूरत है और हज़रत, मुझसे बढ़कर दोस्त आपको इस सूए ज़मीन पर मिल नहीं सकता।' 'लेकिन, ईश्वर के लिए मुझे थोड़ी देर के लिए अकेला छोड़ दो।' 'इस परेशानी की हालत में ? या वहशत, कहीं आप किसी मोटर-लारी के नीचे गिरकर अपनी जान न दे दें।' 'तो इसमें तुम्हारा क्या ?' 'ओह दोस्त, मैं कैसे तुम्हें इस वक्त अकेला छोड़ सकता हूं।' 'लेकिन मेरी जेब में इस वक्त एक फूटी कौड़ी भी नहीं है, मुझसे तुम कुछ भी नहीं पा सकते।' 'मेरे जैसे रज़ील पेशा करनेवाले की बाबत तुमने ठीक ही अन्दाज़ लगा लिया है। लेकिन हम रज़ील आदमी भी सिर्फ अपने ग्राहकों से ही पैसे-रुपयों