पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/७१

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बगुला के पंख 'कहां के नवाब हैं आप ?' 'जी, नवाब बेमुल्क, नवाब ने एक ठहाका लगाया और जेब से सिगरेट निकालकर जुगनू की ओर बढ़ाते हुए कहा, 'शौक कीजिए।' जुगनू ने सिगरेट ली । नवाब ने उसकी और अपनी सिगरेट जलाई । कुर्सी ज़रा पास खिसकाकर कहा, 'हां, तो आज एकाएक इस वक्त कैसे तकलीफ की ?' 'यह क्या कोई जुर्म हो गया ?' 'नहीं बन्दा-परवर, जुर्म नहीं हो गया, लेकिन आम तौर पर इस वक्त लोग अपने रोज़गार-धन्धों में मसरूफ रहते हैं, शाम को तफरीहन इस कूचे में आते हैं।' 'और इस वक्त आएं तो ?' 'महज़ आवारागर्द, छंटे हुए शोहदे इस वक्त इधर आने की जुर्रत करते हैं, या हम लोग, जिनका पेशा ही रज़ील है, लेकिन आप तो एक शरीफ आदमी . 'यहां हम आ गए तो शरीफ नहीं रहे ?' 'यह तो मैं अर्ज नहीं कर सकता हुजूरेवाला, नवाब ने कनखियों से जुगनू की ओर देखते हुए कहा, 'लेकिन आंख के अन्धे और गांठ के पूरे शरीफज़ादे ही फिर वक्त-बेवक्त का खयाल नहीं करते । फरमाइए जेब में क्या है ?' जुगनू का चेहरा फक हो गया। उसकी जेब तो एकदम खाली थी। यहां आकर जेब खाली करनी पड़ती है, रूप का नकद सौदा करना पड़ता है, इस बात का तो उसे ख्याल ही नहीं था। नवाब ने यह बात भांप ली थी, वह उड़ती चिड़िया को पहचाननेवाला, पक्का घाघ, रंडी का दलाल असली और फसली गाहक को पहचानता था। रैस्टोरां का छोकरा दो प्याला चाय दे गया। जुगनू ने उधर देखा भी नहीं। उसका जैसे वहां दम घुटने लगा। कण्ठ से बात भी नहीं फूटी। वह टुकुर-टुकुर नवाब का मुंह देखने लगा। 'लीजिए, चाय पीजिए, चाय के साथ और कुछ मंगवाऊं ?' 'जी नहीं, लेकिन बात यह है कि मैं चाय' कभी नहीं पीता।' 'आप जो पीते हैं, वह पिलाने की तौफीक तो इस गुलाम में नहीं है बन्दा- परवर, फिलहाल चाय पीजिए, एक नवाजिश होगी।'