६८ बगुला के पंख पर भरमार थी। भीड़ और शोर-सब मिलकर एक अशान्त-अप्रिय-सा वाता- वरण बना हुआ था । शान्त रात्रि में सेठ फकीरचन्द के साथ बढ़िया मोटर में बैठकर शराब के नशे में झूमता हुआ जब वह यहां उस दिन आया था और अनायास ही इस स्वर्ग-नसनी पर चढ़कर स्वर्ग-सुख उपभोग कर गया था, वह सब उसे इस समय एक स्वप्न-सा लग रहा था। उसकी प्रवृत्ति अब सर्वथा पाशविक बन गई थी और वह वासना की प्रचंड आग में तप रहा था। फिर भी जीने की पौर पर उसके पैर नहीं पड़ रहे थे। इसी समय किसीने पीछे से कहा, 'आदाबर्ज़ है हुजूरेवाला, कहिए मिज़ाज तो अच्छे हैं !' जुगनू ने मुंह फेरकर देखा, वही नवाब, वही कोठी, अद्धी का कुर्ता, दुपल्लू टोपी, सुरमई अांखें, होंठों पर पान की लकीर, पैर में पम्प शू 'अच्छा, आप हैं। उस दिन आप ही हम लोगों को ऊपर ले गए थे, याद है न ?' 'जी हां, हुजूरेवाला हमारे आका लाला फकीरचन्द साहब के साथ तशरीफ !' लाए थे।' 'जी हां, हमारे साथ एक मजिस्ट्रेट साहब भी थे, जो मेरे बड़े दोस्त हैं।' 'जी हां, मुझे बखूबी याद है, लेकिन अब क्या इरादा है ?' 'ज़रा बीबी से मुलाकात करना चाहता हूं।' 'अब, इस वक्त ?' 'क्या इस वक्त की मनाही है ?' 'मनाही तो नहीं है हुजूरेवाला, लेकिन..' 'लेकिन क्या ?' 'खैर अाइए, एक प्याला चाय तो पी लीजिए।' 'बस, चाय' रहने दीजिए।' 'समझिए, मेरे ऊपर एक अहसान हुआ, आइए ।' नवाब जुगनू को लेकर पंजाबी के गन्दे रैस्टोरेंट में घुस गया और सामने खड़े लड़के को आर्डर दिया, 'दो प्याला स्पेशल चाय' ले आयो ।' फिर एक कुर्सी जुगनू की ओर खिसकाते हुए कहा, 'बैठिए हुजूरेवाला, हां, आपका इस्मगिरामी क्या है ?' 'मेरा नाम मुंशी जगनपरसाद है और आप ?' 'मैं नवाब बन्दा-परवर
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