45 बगुला के पंख बनने से उसकी सबसे बड़ी प्रतिद्वन्द्वी संस्था मुस्लिम लीग तो अब खत्म हो गई थी, पर जनसंघ वैसी ही साम्प्रदायिक भावना से अब पनप रहा था और हिन्दू जनता की एकमात्र हिमायती संस्था होने का दावा कर रहा था। इसके अति- रिक्त समाजवादी दल, प्रजा समाजवादी दल, कम्युनिस्ट दल, सिख संघ आदि और भी दल थे जो राजनीतिक थे । केवल सिखों का संघ और जनसंघ एक हद तक साम्प्रदायिक थे । परन्तु वे अपने को राजनीतिक दल ही मान रहे थे। और इस प्रकार भीतर शासन में भी और बाहर सामाजिक व्यवस्था में भी एक प्रकार की ऐसी धांधली और अव्यवस्था मची हुई थी कि उसे खुशी से मानसिक व्यभिचार कहा जा सकता है । सबसे बड़ी बात यह थी कि कांग्रेस राज्य-सत्ता को चला रही थी। इससे ये सारे ही दल कांग्रेस-विरोधी दल थे। आपस में इनमें विरोध बहुत था, पर वे कभी टकराते नहीं थे। परन्तु कांग्रेस से सब पृथक्-पृथक् भी और एकत्र होकर भी कारण-अकारण मोर्चा लेते थे । उनकी नीति ही कांग्रेस का विरोध करने की थी और इस विरोध की चोट उस व्यक्ति को सीधी सहनी पड़ती थी, जो कांग्रेस में एक विशिष्ट स्थान पा जाता था । इस हिसाब से दिल्ली नगर का म्यूनिसिपल कमिश्नर होना जुगनू के ऊपर असह्य भार था। प्रथम तो वह हर तरह अयोग्य व्यक्ति था, दूसरे सच्चे अर्थों में वह यथार्थ कांग्रेसवादी न था । न वह कांग्रेस के सिद्धान्तों को जानता ही था, न मानता ही था । परिस्थितियों ने उसे धकेलकर आगे कर दिया था और अब उसे बाहर से भीतर की अोर वाम गति से कांग्रेस का एक प्रमुख पुरुष बनना पड़ गया था। शोभाराम उसकी पीठ पर थे। शोभाराम, सच पूछा जाए तो, उसके एकमात्र अवलम्ब थे। दुर्भाग्य से अस्वस्थता के कारण शोभाराम अपने स्थान पर उसे बढ़ाए जा रहे थे। यह उसका बड़ा भारी भाग्योदय' था। म्यूनिसिपल कमिश्नर होने पर शोभाराम और पद्मादेवी ने उसे बहुत-बहुत बधाइयां दीं। परन्तु बधाइयों की अब उसे क्या कमी थी। अब तो उसे पार्टियां दी जा रही थीं। सम्मानपत्र दिए जा रहे थे। अव उसके पास अत्यन्त व्यस्त कार्यक्रम था। उसे अव भाषण करने की आवश्यकता थी, पर वह भाषा नहीं कर सकता था । बोलने योग्य' विषय-विवेचना की सामर्थ्य उसमें नहीं थी। अब तक शोभाराम उसे संभालते आए थे। अस्वस्थ रहने पर भी वे हर पार्टी
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