बगुला के पंख जगनपरसाद की और अब तिरंगे झण्डों की छाया में 'मुंशी जगनपरसाद जिन्दा- बाद, गांधीजी की जय, बन्दे मातरम्, झण्डा ऊंचा रहे हमारा' के शोरगुल और धूमधाम के साथ चुनाव-समाप्ति हुई। रामलीला भी खत्म हुई । दीवाली की तैयारी होने लगी। लाला फकीरचन्द बीस हजार से पिट गए। हाथ-पल्ले कुछ भी नहीं आया। मोटी-मोटी रानों पर हाथ मारकर कहने लगे, 'देखेगा इस मुंशी के बच्चे को।' मुंशीजी की जीत के जशन मनाने को जल्से हो रहे थे और मुंशी जगन- परसाद फूलमालाओं से लदे-फदे दोनों हाथ जोड़कर जयहिन्द कह रहे थे । वे कह रहे थे, 'दोस्तो, यह मेरी नहीं आपकी जीत है। कांग्रेस की जीत है ; महात्मा गांधी की जीत है । मैं तो मुल्क का एक खादिम हूं। अदना खादिम ।' . परन्तु दिल्ली शहर का म्यूनिसिपल कमिश्नर बनना इतना हलका और आसान भार न था कि जुगनू जैसा कुसंस्कारी, समाज और सभ्यता से लगभग सर्वथा वहिर्गत व्यक्ति आसानी से उसका भार संभाल लेता। अभी तो वह इतना भी नहीं जानता था कि म्यूनिसिपल कमिश्नर बनने का दायित्व क्या होता है तथा उसपर उसका क्या नैतिक और सामाजिक प्रभाव पड़ता है। वैसे भी वह इस पद के लिए नितान्त अयोग्य व्यक्ति था। निस्सन्देह कांग्रेस का पतन हो रहा था और उसके पतन का मुख्य कारण था अयोग्य व्यक्तियों को दायित्व के पद देना । इसे वे लोग जन-जागरण का अंग मानते और जनता को ऊंचा उठाने का एक सूत्र कहते थे, परन्तु इससे समाज और व्यवस्था दोनों के ही ढांचे में जो एक बेढंगापन आता जा रहा था, इसकी ओर कांग्रेस अांख उठाकर नहीं देख रही थी। कांग्रेस स्वयं एक पार्टी थी। कांग्रेस-राज्य होने के कारण उसका बल बढ़ा हुआ था । सत्तारूढ़ होने के प्रथम भी वह देश की सर्वाधिक सुदृढ़ और क्रियाशील पार्टी थी। देश पर उसकी धाक थी। देश के सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति और चोटी के नेता कांग्रेस के साथ थे। परन्तु उसीकी पार्टी-नीति ने देश में अनेक दलबन्दियां उत्पन्न कर दी थीं। पाकिस्तान
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