४८ बगुला के पंख १३ कनाट प्लेस के एक 'बार' के सामने मोटर रोककर सरदार जोगेन्द्रसिंह ने पूछा, 'पीते तो हो मुंशी ?' 'जी नहीं, मैंने कभी नहीं पी।' 'तो फिर तुम कायस्थ कैसे हो ?' जोगेन्द्रसिंह ने हंसकर जुगनू का हाथ पकड़कर भीतर धकेलते हुए कहा। यद्यपि यह एक विनोद-वाक्य' था, परन्तु इस वाक्य को सुनकर जुगनू एक बार ठण्डा पड़ गया। उसने सोचा, 'सचमुच मुझे कायस्थ बनना है तो पीना अवश्य चाहिए।' वह नहीं जानता था कि कायस्थ आम तौर पर पीते-पिलाते हैं। पर उसके सम्बन्ध में कायस्थ होने की जो कल्पना कुछ परिचितों में थी, जिनमें जोगेन्द्रसिंह भी थे, उसे कुछ संदिग्ध बनाना नहीं चाहता था। वह चुप- चाप उनके पीछे 'बार' में चला गया। वहां बहुत लोग खा-पी रहे थे। अपने जीवन में जुगनू ने पहली ही बार यहां देखा कि खाने-पीने में भी विलास का उत्कट रूप कैसा होता है ! चारों ओर चमचमाती मेजें, उनके इर्द-गिर्द स्प्रिंग- दार सोफे और उनपर बैठे सम्भ्रान्त स्त्री-पुरुष जिन्हें देखकर आंखें चौंधियाती थीं। एक विचित्र गन्ध और भिनभिनाहट से वातावरण प्रेरित था। जुगनू हक्का- बक्का यह रूप देख रहा था। सरदार जोगेन्द्रसिंह ने बैरा को बुलाकर आर्डर दिया, 'बैरा, दो व्हिस्की ।' इसी समय पीछे से आवाज़ आई, 'दो नहीं, तीन ।' इसके बाद खिलखिलाकर हंसने की ध्वनि हाल में गूंज गई । सरदार ने पीछे घूमकर देखा, एक अधेड़ आयु का काफी मोटा और बेडौल- सा आदमी हंसता हुआ उन्हींकी ओर आ रहा है। उसे देखकर सरदार जोगेन्द्रसिंह ने ज़रा रुपाब-भरे स्वर में कहा, 'अच्छा, आप हैं, सेठ फकीरचन्द, आइए, इनसे मिलिए । हमारे दोस्त मुंशी, मुंशी सरदार जोगेन्द्रसिंह मुंशी का नाम भूल गए। जुगनू ने कहा, 'जी, मेरा नाम जगनपरसाद है, मैं कायस्थ हूं।' सेठ फकीरचन्द ने आगे बढ़कर उससे हाथ मिलाते हुए कहा, 'बड़ी खुशी
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