बगुला के पंख ४५ जीवन वही नहीं है कि भले आदमी जैसे धुले कपड़े पहन लिए। यह तो जैसे कौना मोर के पंख खोंस ले ऐसा हुआ । सभ्य जीवन के भेद तो इन पुस्तकों में हैं । इन पुस्तकों के ज्ञान को आत्मसात् करने ही से तो लोग सभ्य-शिष्ट बनते हैं। विविध विषयों पर अधिकारपूर्ण ढंग से बातें कर सकते हैं । उसने दिल्ली आने पर इन्हीं थोड़े दिनों में सभ्य समाज में प्रविष्ट होकर बहुत-से विवादों को सुना था। उसीके चारों ओर बैठकर लोग धर्म, समाज, राजनीति, विज्ञान और साहित्य की भांति-भांति की बातें करते रहे हैं। वह उन बातों को तनिक भी नहीं समझ पाता था। उसका भेद उसपर अब इस पुस्तक-भण्डार को देखकर प्रकट हुआ। यों उलटे-सीधे शेर-गज़लें याद कर ज़रा-सी गलेदराज़ी के बल पर जो वह अब तक वाहवाही लूटता रहा था, उसका थोथापन आज उसपर प्रकट हो रहा था। आज वह चाह रहा था कि इन सारी ही पुस्तकों को घोलकर पी जाए । इन सारी पुस्तकों का ज्ञान उसमें समा जाए। वह खोया-खोया-सा खड़ा था। किसीसे कुछ कहना तो दूर, कुर्सी पर टेबल के नजदीक बैठने तक की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। इसी समय' एक महिला ने उसके निकट आकर मुस्कराते हुए कहा, 'आपको क्या चाहिए ? महिला पुस्तकालय ही की कर्मचारिणी थी । युवती और सुन्दरी, कोमल वाणी, प्रसन्न मुख, विनम्र चेष्टा और आदर से भरपूर शैली में उसने जो यह प्रश्न किया तो जुगनू से जवाब देते न बना । वह प्रश्न ही को नहीं समझा। महिला ने कहा, 'आपको क्या कोई पुस्तक चाहिए ?' 'जी हां,' जुगनू ने कुछ अनिश्चित-से स्वर में कहा। 'कौन-सी पुस्तक ?' 'कोई-सी भी। 'किस विषय की ?' जुगनू इन प्रश्नोत्तरों से घबरा गया। महिला ने हंसकर कहा, 'आप शायद पहली ही बार यहां आए हैं।' 'जी हां।" 'आप इधर आ जाइए। यहां बैठिए ।' एक टेबल के पास उसे बैठने का
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