बगुला के पंख पर ज्वाइण्ट सेक्रेटरी के पद पर था, और शोभाराम के स्थान पर सेक्रेटरी का काम कर रहा था ; पर आज वह सर्वत्र अपने को एक हीन व्यक्ति समझ रहा था। उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह जहां बैठा है, जो कुछ कर रहा है, और जहां रह रहा है, जो कुछ देख-सुन रहा है, उन सबके लिए वह नितान्त अयोग्य है । जैसे उसे अपने आपका मुलम्मा दीख रहा था । उसे यह याद करके अपने में एक सिहरन-सी उठ रही थी कि जैसे अभी-अभी सारी दुनिया इकट्ठी होकर चिल्लाकर कह उठेगी, 'अबे प्रो भंगी के बच्चे, तेरी यह जुर्रत ? कि तू भले आदमी का ढोंग बनाकर यहां बैठा लोगों की आंखों में धूल झोंक रहा है।' वह अपने ही में सकुचाया-सा, लज्जित-सा चुपचाप जैसे-तैसे अपना काम करता जा रहा था। काम ठीक हो रहा है या नहीं, यह भी वह नहीं जानता था। आज न उसने चपरासी से डांट-डपट की थी, न किसी आगन्तुक से बातें की थीं। वह सबको टरका रहा था और नहीं जानता था कि क्या-क्या कर रहा है। क्षण-क्षण में उसके नेत्रों में शारदा का, परशुराम का, पद्मादेवी का चेहरा चलचित्र की भांति नाना रूप धारण करके आ रहा था। सारा दिन इसी प्रकार बीत गया। उसने कुछ भी नहीं खाया-पिया । समय से पहले ही वह आफिस से निकल गया। अभी तीन ही बजे थे। वह कहां जाए, समझ नहीं पा रहा था । अकस्मात् उसने देखा कि वह स्टेशन के पास आ गया है । क्षण भर उसने खड़े होकर सोचा। सामने दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी की विशाल इमारत थी। वह किसी अज्ञात प्रेरणा के वशीभूत होकर उसमें घुस गया। ज्ञानसागर के उस भवन में घुसकर उसने देखा-अनेक स्त्री, पुरुष, तरुण, वृद्ध, बाल अपनी- अपनी रुचि और तबियत के अनुसार पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएं पढ़ रहे हैं। अनगिनत पुस्तकें आलमारियों पर सज रही हैं। एक बड़ी-सी मेज़ के चारों ओर पचासों पुरुष झुके बैठे कुछ पढ़ रहे हैं। कोई न किसीसे बात करता है, न कोई काम । पुस्तकालय' के कर्मचारी फुर्ती से दौड़-धूप कर रहे थे। एक के बाद एक पुस्तकें निकालकर नये-नये अागन्तुकों को देते जाते थे । जुगनू की अन्तश्चेतना और नेत्रों के लिए यह सर्वथा नवीन था। उसने कभी पुस्तक पढ़ने का ऐसा दृश्य नहीं देखा था। स्वयं भी वह पुस्तक पढ़ने में रुचि नहीं रखता था। आज वह पहली ही बार यह अनुभव कर रहा था कि उसे भी पुस्तकें पढ़नी चाहिए। सभ्य जीवन का जैसे एक भेद उसपर खुल रहा था। वह सोच रहा था, सभ्य
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