३४ बगुला के पंख अपने वक्ष से लगा लिया। अर्धचेतनावस्था में शोभाराम ने पत्नी के उस भावाविष्ट मुख की अश्रुधारा से पूर्ण अांखों का चुम्बन लिया । दोनों मूक निर्वाक कुछ देर उसी प्रकार अचल बैठे रहे। धीरे-धीरे पद्मादेवी खिसककर शोभाराम के चरणों में आ गिरी । उसने उसके दोनों चरण वक्ष से लगाकर चूम लिए। उसने कहा, 'आप मेरे स्वामी हैं, संरक्षक हैं, सहायक हैं । मैं दीन- हीन, मलिन, अबला हूं। तुम्हारे सहारे ही से मैं जीवित रह सकती हूं।' शोभाराम ने कहा, 'मैं निस्संदेह अपने को क्षमा नहीं कर सकता । मैं सदा का रोगी हूं, जान-बूझकर मैंने तुम्हें अपने रुग्ण शरीर के साथ बांधकर स्वार्थी का सा आचरण किया। मैं जानता हूं, तुम प्रेम के उस प्रसाद को प्राप्त नहीं कर सकी जिसको प्राप्त करने का तुम्हें हक था । पर क्या कहूं, जिस क्षण तुमपर मेरी नज़र पड़ी, मैं संयत न रह सका। संयम और न्याय सब भूलकर मैंने तुम्हें प्राप्त कर लिया। तुम्हें भूखों मार डालने की नीयत से। पर मैं करूं भी क्या ? तुम्हें देखते ही मेरी सारी चेतना व्यग्र हो उठी । सारी हड्डियां उत्तेजित हो उठीं। तुम मेरे घर आईं और मेरे चिन्तापूर्ण मन को मधुरिमा से भर दिया । कवि जिस उन्मत्त प्रेम का वर्णन करते हैं, वही प्रेम मुझे भ.कझोरने लगा। प्रेम-रस का स्वाद कैसा है, यह तुम्हें पाकर ही मैंने जाना । पर तभी मैंने यह भी जान लिया कि हाय, यह मैंने क्या किया, तुम्हारे हृदय की कली खिलाने की मुझमें सामर्थ्य ही नहीं है। जब तुम्हारी मृदुल वाक्यावलि मेरे कानों में संगीत की ध्वनि उत्पन्न करती थी, तभी मेरे मन में एक टीस उठती थी कि अवश्य यह ध्वनि कहीं आर्तनाद भी करती होगी । उस समय मैं पागल हो गया, मैं विमूढ़ हो गया। मैंने सोचा, भोगलिप्सा से परे स्वर्गीय प्रेम ही मूल तत्त्व है जो मेरे रोम-रोम में व्याप्त था । परन्तु भोग लिप्सा का मूल्य भी इतना है, वह प्राणों का सम्पूर्ण स्पन्दन है, चेतना की सबसे ऊंची तान है, यह मैं जानता न था। उसे तो मैं तुम्हारी आंखों में पढ़ता गया, जानता गया । घबराता गया, परेशान होता गया । लज्जा और वेदना से छटपटाता गया।' 'बस करो । अब बस करो। मैं यह सब नहीं सुनना चाहती, प्रियतम ! तुम्हारी मंगल-कामना ही अब मेरे जीवन का एक व्रत है । तुम्हारा यह अनुराग ही मेरे जीवन का सहारा है।' पद्मा का सिर नीचे की ओर भुक गया। वह शोभाराम के पैरों के पास उसके घुटनों पर सिर रखकर बैठ गई। फिर उसने
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