बगुला के पंख पर खिन्नता प्रकट की । अन्त में उसने मुद्दे की बात कही। उसने कहा- 'मैंने एक बात सोची है पद्मा।' 'कौन-सी बात? 'सांप मरे न लाठी टूटे। 'कहिए भी।' 'तुम देखती हो, तुमसे मिलने की प्रबल इच्छा होने पर भी मैं बदनामी के डर से तुमसे मिल नहीं पाता।' 'मैंने तो इसीसे विवाह" 'देखो, बात सुनो । विवाह का पचड़ा छोड़ो। मैंने उपयुक्त बात सोची है।' 'क्या ?' "मुझे एक पी० ए० की आवश्यकता है । मैं इस पद पर तुम्हें रखना चाहता हूं। वेतन पांच सौ रुपये मिलेगा। निवास, भोजन पृथक् । मेरे ही साथ तुम्हें रहना होगा।' 'तो अब मुझे तुम्हारा नौकर होकर रहना होगा?' पद्मा ने आंखों में आंसू भरकर कहा। 'तुम्हारी मर्जी है। मैं कोई ज़बर्दस्ती तुम्हें मजबूर नहीं करता। पर इस प्रकार हम प्रतिष्ठापूर्वक चाहे जब मिल सकते हैं।' 'और चाहे जब आप नौकरी से बर्खास्त कर सकते हैं।' 'कैसी बातें करती हो पद्मा ! तुम जानती हो मैं तुम्हें कितना प्यार करता 'मैं सब जानती हूं। अच्छी बात है, मुझे स्वीकार है। मेरे भाग्य में जो लिखा है, वह मुझे भोगना ही होगा।' 'तो सुनो, तुम्हें एक प्रतिज्ञा करनी होगी-शपथ खाकर।' 'कैसी प्रतिज्ञा?' 'जैसी मुझे करनी पड़ी थी, मिनिस्टर बनने के समय, कि मैं प्राणान्त होने पर भी आफिस का कोई भेद प्रकट नहीं करूंगा तथा राजभक्त रहूंगा।' 'मुझे क्या करना होगा ?' 'तुम मेरा, मेरे आफिस का कोई भेद कहीं न प्रकट कर सकोगी, न विरोध कर सकोगी ! बिना उन आज्ञा-पालन करोगी।' .
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