बगुला के पंख २४७ 'वह मेरी औरत कव है ?" 'जनाब, आपने उससे शादी की है।' 'यह तो कानूनी शादी नहीं है । आराम से तोड़ी जा सकती है।' 'लेकिन ताज्जुब है कि तुम इतनी जल्दी ऊब गए । अभी तो दो साल भी इन बातों को नहीं हुए और उसका जादू उतर गया !' 'भाईजान, तुम नहीं जानते कि इन्सान की हर बार एक नई ज़िन्दगी शुरू होती है । और नई में पुरानी चीजें बेमौजूं पड़ती जाती हैं ।' 'लेकिन पुरानी चीज़ पर भी नज़र पड़नी चाहिए, वरना वीराना ही वीराना है।' जुगनू चुप हो गया। उसके मन में जो शारदा की मूर्ति छिपी बैठी थी, उसे उसने अपने इतने घनिष्ठ मित्र नवाब को भी नहीं बताया था । अब वह पैनी नज़रों से नवाब को ताकने लगा। इसका मतलब था कि क्या तुम्हें भी यह भेद मालूम हो गया है ? परन्तु नवाब चुपचाप हंसे चला जा रहा था । उसने हंसते- हंसते कहा, 'बस, अब कोई राज़ जाहिर होनेवाला है।' 'इसकी उम्मीद न करो।' 'तो कहो, कोई नई सूरत दिल में प्रा बसी है ?' 'मैं कुछ नहीं कहता।' 'तो मैं पता लगा लूंगा।' 'लेकिन मैं इस मुसीबत को क्या करूं ?' 'अब तो तुम्हारे बहुत रसूख हैं, उसे कहीं नौकर करा दो।' 'मैंने कहा था, वह नौकरी करना नहीं चाहती। शादी की ज़िद कर रही है। 'देखो भई, तिनका मत तोड़ो। ज़रा सब से काम लो। और देखो कि आगे क्या होनेवाला है।' 'लेकिन वह कल आ रही है । सीधी मेरे घर पर आ धमकेगी।' 'उसके लिए अलहदा मकान का इन्तजाम कर दो। या उसे मसूरी ही में रोक दो।' 'बहुत कहा, वह मसूरी किसी हालत में नहीं रहना चाहती। और अब तो वह आ ही रही है।'
पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/२४९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।