बगुला के पंख २४५ 'तुम्हारे सिर पर तो विवाह का भूत सवार है पद्मा ! मैं कहता हूं, थोड़ा और ठहरो।' 'लेकिन इससे फायदा क्या है ?' 'पहला फायदा तो यही है कि हम लोग एक दूसरे को अच्छी तरह ठीक-ठीक समझ लें।' 'हे परमेश्वर, अब भी हमें सोचने-समझने की गुंजाइश है ?' 'क्यों नहीं है ! इन्सान कोई बैल नहीं है । भला-बुरा सोचना उसका काम है।' 'लेकिन मेरी तकदीर में जो होना था वह हो चुका ।' 'तो तुम्हें शायद इसका अफसोस है !' 'अब अफसोस करने से क्या होगा ?' 'अाखिर तुम्हारी मंशा क्या है ?' 'मैं चाहती हूं विवाह हो जाए और हम लोग पति-पत्नी के रूप में दुनिया के सामने रहें। 'तो समय आएगा तो यह भी हो जाएगा। जल्दी क्या है ?' 'तुम्हें नहीं है, मुझे है।' 'तुम्हें क्यों है, सुनूं तो?' 'इस तरह हमारा मिलना-रहना कोई इज़्ज़त की बात नहीं है।' 'तो तुम चाहती हो मैं न आया करूं ? ऐसा है तो मैं नहीं आऊंगा।' 'तुम बात का गलत अर्थ क्यों लगाते हो ?' 'सही अर्थ तुम बता दो।' 'विवाह समाज की एक मर्यादा है। किसी भी स्त्री-पुरुष को विवाह बिना किए एकत्र नहीं रहना चाहिए।' 'प्रथम तो मैं समाज की परवाह ही नहीं करता । दूसरे, अब तो बात बहुत आगे निकल चुकी। तीसरे, मैं कह चुका हूं कि ज़रा और ठहरो, विवाह हो जाएगा। 'यह सुनते-सुनते तो एक साल बीत गया।' 'कम से कम एक साल तो तुम्हें अपने पूर्वपति का मातम मनाना चाहिए।' 'तुम ज़ख्म पर चोट क्यों करते हो ? इससे तुम्हें क्या मिलेगा भला ?'
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