२४४ बगुला के पंख 'यह तुम्हारी ही तो कृपा है । तुम मुझे सहारा न देते तो न जाने मेरी क्या दशा होती !' पद्मा की इस बात में कितना व्यंग्य था, इस बात को इस समय छोडिए । खैर, यह अप्रासंगिक बात ज़रूर थी। फिर भी जुगनू को यह बात सुनकर खुशी ही हुई। उसने कहा- 'रुपये तो तुम्हें मिल गए थे ?' 'हां, पर इस बार किराया नहीं दिया जा सका।' 'क्यों?' 'रामू की बहिन की शादी थी, उसे कुछ रुपया पेशगी देना पड़ा । कुछ कपड़े बनवाने ज़रूरी थे और फर्नीचर का बिल भी, जो बहुत पुराना हो गया था, चुकाना पड़ा। 'लेकिन किराया अदा करना सबसे पहली बात थी।' 'थी तो, लेकिन रुपये बचे ही नहीं।' 'पद्मा, मैं अब ज्यादा रुपये नहीं भेज सकूँगा। और भी खर्चे हैं । तुम्हें हाथ रोककर खर्चा करना चाहिए । खैर, इस बार तो मैं रुपये लाया हूं। पर बेहतर हो कि यहां कोई नौकरी कर लो, कुछ खर्च में भी मदद मिलेगी और तुम्हारा दिल भी काम में लगेगा।' पद्मा ने जवाब नहीं दिया। उसकी आंखों में अंधकार छा गया। जुगनू ने कहा, 'क्या तुम बीमार हो ?' 'जरा योंही तबियत खराब हो गई थी।' 'डाक्टर को दिखाया?' 'क्या ज़रूरत थी ! ठीक हो जाऊंगी।' 'लेकिन तुमने खत में तो बीमारी की बात नहीं लिखी।' 'मैंने सोचा शायद तुम्हें पढ़ने की फुर्सत न मिले।' इतना कहकर पद्मा अपने आंसू रोकने के लिए वहां से उठ गई। रात को फिर बातचीत ने अप्रिय रूप धारण कर लिया। पद्मा ने कहा, 'अब आखिर मैं इस शर्मनाक हालत में कब तक रह सकती हूं ? विवाह की एक तारीख ठीक करके वह काम खत्म कर डाला जाए जिससे मैं समाज में मुंह दिखा सकू ।'
पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/२४६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।