२४२ बगुला के पंख अवलम्ब । कैसे वह उससे अपने को बचा सकती थी ! ऐसा विचार ही विडम्बना था, खासकर उस अवस्था में जबकि वह उसपर आसक्त थी। अन्तत: वही हुआ जो होना अनिवार्य था। उसे आत्मसमर्पण करना पड़ा। परन्तु उसके अवसाद का अन्त नहीं हुआ। शोभाराम की मृत्यु की मनो- व्यथा, बिना विवाह परपुरुष को आत्मसमर्पण की ग्लानि, आर्थिक विवशता से हुआ आत्मसम्मान पर आघात और विवेकशील मर्यादा के उल्लंघन के दुःख ने उसके रोम-रोम को अवसाद से भर दिया । तिसपर यह अवसाद उस समय शत-सहस्र गुणा बढ़ गया, जब उसपर जुगनू के पशुत्व, स्वार्थ, दुश्चारित्र्या, बर्बर कामुकता और उसकी पाशविक प्रवृत्तियों का प्रकटीकरण हुआ। वह तो एक प्रकार से उसे खा रहा था, झिंझोड़-झिझोड़कर । जैसे कोई हिंस्र पशु अपने शिकार को खाता है। पद्मादेवी की संस्कृत आत्मा भला यह सब कहां सहन कर सकती थी ! सो अब जो उसकी आंसुओं की धारा बही सो गंगा-जमुना का संगम बन गई। उसके ये आंसू अब पति-वियोग के न थे, अपने पतित जीवन पर थे। उसकी आंखें नासूर बन गई थीं। परन्तु जुगनू यह सब कैसे बर्दाश्त कर सकता था। उसे हास चाहिए था। विलास चाहिए था। शोभाराम मर गया। उसके मार्ग का कांटा दूर हुआ। अब वह उसपर रुपये खुले हाथों से खर्च कर रहा है। उसे सब तरह सहारा दे रहा है। जबकि उसका कोई दूसरा सहारा नहीं है तो इसपर उसे खुश होना चाहिए। परन्तु वह तो जब देखो तभी उदास, जब देखो तभी नीरस, ठण्डी, जैसे मुर्दा लाश हो । भला जुगनू की वासना-तृप्ति और काम-भूख की तृप्ति यहां कैसे हो सकती थी ! उसने समझा, यह कृतघ्न औरत है। न मेरे प्रेम को महत्त्व देती है न आर्थिक सहायता को । यह उस मुर्दे की याद में सदा मनहूस चेहरा बनाए रहती है। बड़ी मनहूस है यह औरत । और उसका मन उससे फिरता चला गया। अब वह महीनों तक यहां न श्राता । खतों का जवाब भी न देता । रुपया-पैसा भेजने में भी लापरवाही करता। साल बीतते न बीतते जुगनू का सारा ही प्रेम खर्च हो गया। सारा ही जोश ठण्डा पड़ गया। अब जब कभी पद्मा विवाह की चर्चा उठाती तो जुगनू क्रोध और घृणा से उलझ पड़ता। पद्मा को रोने के अतिरिक्त अब एक ही चारा था, .
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