२३० बगुला के पंख 'कुछ भी नहीं होगा दोस्त। मैंने कहा न कि बीती ताहि बिसारि दे आगे की सुधि लेहु । पुलिस से मैंने मामला तय कर लिया है। दो हजार रुपये लेकर उसने मामला रफा-दफा कर दिया । दिमाग खराब था, एकाएक छत से कूद पड़ी डाक्टर को भी उन लोगों ने पटा लिया। तुम्हारा नाम इस झंझट में नहीं आएगा । मैंने राधेमोहन को भी समझा दिया है कि इज़्ज़त का सवाल है, वह चुप रहे । परन्तु वह बिलकुल बदहवास हो रहा है और सिर धुन रहा है । पर तुम्हारे खिलाफ अब वह मुंह नहीं खोलेगा। बहुत झिकझिक करनी पड़ी- लाओ, चाय पिलायो इसी बात पर।' इतना कहकर नवाब ने सोफे पर पांव फैला दिए । नौकर चाय रख गया । पर जुगनू के हलक से चाय नहीं उतर रही थी। इक्कीस दिन वह उस बदनसीब औरत के पास रहा, उसके अल्हड़ अज्ञान से लाभ उठाकर उसने उसके तन-मन को अपने में समेट लिया। किस तरह कबूतरी की तरह उसने आत्मसमर्पण कर दिया, और मर मिटी। ये सब बातें तस्वीर की भांति उसकी आंखों में नाच गईं, एक शब्द भी उसके मुंह से नहीं निकला । वह एक असंयत और चरित्रहीन तरुण तो था, परन्तु कोमल भावनाएं अभी उसमें थीं। उसकी आंखें गीली हो गईं। नवाब ने कहा, 'यार, कैसे मर्द हो, औरत के लिए अांखें भर लाए !' लेकिन जुगनू ने जवाब नहीं दिया। आंसू पोंछकर वह चुपचाप पलंग पर पड़ नवाब ने सिगरेट हाथ से फेंक दी। उसने वहां से उठ चलना ही ठीक समझा। वास्तव में इस समय जुगनू को एकांत की आवश्यकता थी। नवाब ने कहा, 'बड़े नादान हो दोस्त ! अब तुम ज़रा सो रहो।' यह कहकर नवाब वहां से चल दिया।
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