पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/२१८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२१६ बगुला के पंख बचकानी, काली, गोरी सब जात की औरतें थीं । कुत्सा और गन्दगी का बाज़ार था। स्वयंसेविकाएं उन्हें एक-एक धोती जोगिया रंग की रंगी हुई देती जाती थीं और गुसलखानों में धकेलती जाती थीं। गुसलखानों से कायापलट होकर वे बाहर निकलती थीं। सब खुश थीं। आज उनके आराम का दिन था, मौज- मज़ा का दिन था। नई धोती, पूड़ी, तरकारी, खाना और दो रुपया नकद, और क्या चाहिए ! दुपहर होते-होते जनसंघ-शिविर का कायापलट हो गया। सात सौ औरतें जोगिया साड़ी पहने पूड़ियां उड़ाकर संतुष्टमन पण्डाल में जमी बैठी थीं। कोई पैर फैलाकर और कोई अधलेटी। बीच में चखचख भी चल रही थी। स्वामी- जी की चेलियां उन्हें डांट-डपटकर ढंग से बैठने और चुप रहने को मजबूर कर रही थीं। बारह बजते-बजते स्वामीजी चौकी पर उनके सामने आ बैठे। भक्त- जन भी आ गए। बैण्ड बजने लगा। तमाशाई लोग एकत्र होने लगे । और स्वामीजी ने सत्संग-कीर्तन करना प्रारम्भ किया। शुरू में गीता के दो-चार श्लोक पढ़े और फिर 'राधेश्याम, राधेश्याम, राधेश्याम हरे हरे । सीताराम, सीताराम, सीताराम हरे हरे ।' की मुहारनी करानी आरम्भ की । भक्त स्त्रियों ने नेतृत्व किया । सब स्त्रियां सम्मिलित स्वर में कीर्तन करने लगीं। मर्दो ने, तमाशाइयों ने भी साथ दिया। जनसंघ का यह चुनाव-केन्द्र धार्मिक सत्संग का सभाभवन बन गया। कौन कह सकता था कि ये सब भिखारिने, झल्लीवाली और आवारागर्द मजदूरिन औरतें हैं । और जब शाम को जुलूस निकला तो उसकी शान ही निराली थी। आगे-आगे हाथी पर भगवा झण्डां। पीछे वैण्ड बाजा । उसके पीछे दिल्ली के भिन्न-भिन्न जाति के अखाड़े। कोई डंडे खेल रहा था, कोई पट्ट, कोई तलवार-नेज़े के हाथ दिखा रहा था -बीच-बीच में 'बजरंगबली हनु- मान, हर हर महादेव । हिन्दुस्तान अखण्ड है । काश्मीर हमारा है।' के नारे लगते थे। सात सौ जोगियाधारिणी देवीस्वरूप नारियां 'राधेश्याम, राधेश्याम, राधेश्याम, हरे हरे,' की धुन तालियों की ताल पर आलापती चल रही थीं। जोगीराम, स्वामी गीतानन्द, फणीन्द्र बाबू अलग-अलग लारियों की छतों पर पुष्पों से लदे-फदे हाथ जोड़कर अगल-बगल खड़े नर-नारियों को प्रणाम करते जा रहे थे। जुलूस के वाद में काली निकर, सफेद कमीज़ पहने एक हजार स्वयं- सेवक गगनभेदी नारों से आकाश फाड़े डाल रहे थे ।