बगुला के पंख २१५ 'नहीं बनेगा। विधवाश्रमों में अब कुत्ते रोते हैं । यही हाल अनाथालयों का 'तो स्कूल-कॉलेजों से कोशिश कीजिए।' 'वहां तो कांग्रेस की भूतनियां चिपटी बैठी हैं। जनसंघ को वे देशद्रोही समझती हैं। 'फिर स्वामीजी ही कोई राय बताएं।' 'गीता-प्रवचन में सब बूढ़ी-ठूढ़ी स्त्रियां आती हैं। बहुत कोशिश करने पर सौ-डेढ़ सौ इकट्ठी हो सकती हैं । पर एक बात है, वह ज़रा मुश्किल-सी है- पर हो सकती है।' 'वह क्या ?' 'शहर में बहुत मज़दूरिने, भिखारिनें, और टकियाही स्त्रियां रहती हैं। उनकी संख्या कम नहीं है । उनमें जवान भी बहुत हैं, कोशिश करके उन्हें बटोरा जा सकता है।' 'प्रथम तो यह काम ही मुश्किल है। दूसरे उनके गन्दे कपड़े, जाहिल औरतों का जुलूस, न पढ़ी न लिखी, भला दिल्ली के लोग क्या कहेंगे !' 'कुछ नहीं कहेंगे । और काम मुश्किल भी नहीं है । आप उनसे गीता- भागवत तो बंचवाएंगे नहीं । जुलूस ही निकालेंगे न ? हां, खर्च ज़रूर होगा।' 'खर्च कितना होगा ?' 'देखो भई। जितनी अपनी भक्त स्त्रियां हैं उन्हें तो पांच-पांच रुपयों में मैं राज़ी कर दूंगा। बाकी मज़दूर औरतों और भिखारिनों के लिए उनके ही गुर्गे छोड़ने होंगे। उन सबके लिए एक-एक धोती जोगिया रंगवाकर देनी होगी। एक वक्त खाना खिलाना होगा और दो-दो रुपया नकद देना होगा । जो गुर्गे उन्हें बटोरकर लाएंगे उन्हें दस-दस रुपये रोज़ देना होगा। अभी तीन दिन हैं । बहुत समय है । हज़ार-आठ सौ औरतें बटोरी जा सकती हैं।' 'तो जोगीराम ऐसा ही करो बाबा, यह इज़्ज़त का सवाल है।' 'अच्छी बात है । तो स्वामीजी ही यह व्यवस्था करेंगे। खर्च का प्रबन्ध हो जाएगा।' जोगीराम ने मरी आवाज़ में हताश स्वर में कहा । सब बातें तय हो गईं। सभा होने के दिन, दिन निकलते ही कंगलों की भीड़ जनसंघ के चुनाव-कैम्प में एकत्र होने लगी। लम्बी, ठिगनी, मोटी, पतली, बूढ़ी,
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