२०४ बगुला के पंख बहुत हुज्जत हुई। और जुगनू राज़ी हो गया। राधेमोहन प्रसन्न होकर चला आया । 'सुवह मैं आपको ले चलूंगा।' वह यह कहता गया । निस्सन्देह उसका यह आग्रह मूर्खतापूर्ण था। प्रथम तो उसका घर बहुत ही छोटा था, दूसरे जुगनू से उसका इतना घनिष्ठ सम्बन्ध ही नया था, तीसरे उसकी आय सीमित थी। परन्तु उसकी सबसे बड़ी मूर्खता थी झूठमूठ ही पत्नी का नाम ले बैठना। घर पहुंचकर उसने पत्नी से चर्चा की, 'सुना तुमने, भाई साहब बहुत बीमार 'कौन भाई साहब ?' 'अजी वही मुंशी, उस दिन तुमने जिनकी दावत की थी। तुम्हारा बना हुग्रा मूंग की दाल का हलुआ अब तक उनकी जीभ पर है।' गोमती ने कहा, 'क्या हुआ है उनको ?' 'डाक्टर कहते हैं, मियादी बुखार है। बहुत कमजोर हो गए हैं वेचारे ! सुबह उन्हें यहां लाना है।' 'यहां क्यों लाना है ? 'तो क्या उन्हें वहीं पड़ा रहने दूं ? वहां कौन देखदेवाला है उनका ?' 'तो हमने उनकी देखभाल का ठेका लिया है ? उनके सगे-सम्बन्धी होंगे। वे उनकी देखभाल करेंगे।' 'यही तो मुश्किल है, बेचारे का सगा-सम्बन्धी कोई नहीं। सब खानेवाले 'तो हमें इससे क्या, बहुत लोग शहर में बीमार पड़ते हैं । हमारे यहां कोई अस्पताल है ?' 'घर के आदमी के लिए अस्पताल की क्या बात है ?' 'वह घर के कौन हैं, भाई या भतीजे ?' 'कैसी बातें करती हो भई तुम, कभी-कभी तो पूरी निष्ठुर बन जाती हो, इतनी दया-माया भी तुममें नहीं है !' 'नहीं है । बिलकुल पत्थर हूं, लेकिन तुम उसे मेरे घर में नहीं ला सकते।' 'औरत की अक्ल भैंस की तरह होती है। दो लट्ठ लगे कि ठीक हुई।' 'तो लट्ठ भी मार लो।'
पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/२०६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।