बगुला के पंख २०३ उनमें भाव-विमोहित-सा अर्धमूर्छित अवस्था में पड़ा छटपटाता रहता था वह सोते-सोते चौंककर चीख उठता । बहुधा उसे रात-रात-भर नींद नहीं आती थी। वह छटपटाता था, वह बड़बड़ाता था। डाक्टर खन्ना उसे एक-दो बार देखने आए । चिकित्सा कई डाक्टरों की चल रही थी। वह चिड़चिड़ा हो गया था और बहुत जल्द उत्तेजित हो जाता था। कभी-कभी तो उसे काबू में करना भी दूभर हो जाता था। राधेमोहन ने इधर अर्से से जुगनू से मुलाकात नहीं की थी। अपनी दावत के सहारे एक-दो बार वह उससे मिलने भी आया, पर जुगनू काम में इतना व्यस्त था कि वह उससे ठीक-ठीक बातें भी न कर सका। अब जो उसने अचानक जुगनू के बीमार होने की खबर सुनी तो वह ताबड़तोड़ उससे मिलने उसके मकान पर आ पहुंचा । जुगनू गुमसुम पड़ा हुआ था। उसकी यह हालत देखकर राधेमोहन द्रवित हो गया। उसने कहा, 'यह क्या भाई साहब, आपने मुझे खबर भी नहीं दी ! यहां आप अकेले पड़े हैं । यह हालत कर ली है, आप मेरे घर चलिए, मैं आपको यहां अकेले कैसे छोड़ सकता हूं। मेरी पत्नी ने जब सुना तुरन्त मुझे भेजा कि तुम्हें ले ही आऊं ।' जुगनू के मन में एक बिजली-सी कौंध गई। एक सुखद अनुभूति ने जैसे उसे आह्लादित कर दिया । भूली हुई गोमती की अल्हड़ता, अपने से अज्ञात-सी मूर्ति उसे याद हो आई । उसके घर जाने से तो उसका रात-दिन' का सामना रहेगा। जुगनू बीमार था, अशक्त था, लेकिन वासना का सम्बन्ध तो उसके जीवन से ही था । वह कुछ उत्तर न देकर चुपचाप पड़ा छत को ताकता रहा । राधेमोहन ने फिर कहा, 'क्यों? आप सोच क्या रहे हैं ? आपको अवश्य मेरे यहां चलना पड़ेगा।' 'परन्तु भाई, तुम्हारा घर छोटा-सा है, तुम्हें असुविधा होगी। मैं भाभी को कष्ट नहीं देना चाहता । अच्छा हो जाऊंगा । कभी-कभी देख जाया करो।' 'यह नहीं होगा। मैं भूखहड़ताल कर बैलूंगा। घर छोटा है तो क्या हुआ, हमें कोई तकलीफ नहीं होगी।' जुगनू का मन था, तकलीफ हो भी तो भी चलना चाहिए। वह आधे धूंघट से झांकता हुआ लाज-भरा मुख, वह सहज सलज्ज मुस्कराहट और शोभा- आंखों के सामने रखने योग्य है ।
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