बगुला के पंख २०१ है । वह उसे पाप और आत्मसेवा कहता है । वह कहता है कि आदमी को विवाह उसी प्रकार करना चाहिए, जैसे वह मृत्यु को प्राप्त होता है। पुत्र के प्रति उसका वह आकर्षण नहीं है जो हिन्दू पति का है । सन्तानोत्पत्ति के प्रति उसके हीन भाव हैं। यूरोप और अमेरिका में विवाह के पूर्व ही प्रायः युवतियां कामतृप्ति करने लगती हैं, जिससे उनका दाम्पत्य जीवन अविश्वसनीय हो जाता है। वहां संतति-निरोध को खास महत्त्व दिया जा रहा है । और मजे की बात यह है कि जैसे प्राचीन आर्यों का 'पुत्रोत्पादन' आर्थिक रूप में महत्त्वपूर्ण था, उसी प्रकार आज सभ्य देशों में संतति-निरोध आर्थिक महत्त्व का सर्वोपरि प्रश्न बनता जा रहा है। यूनानी प्राचीन सभ्यता में स्त्रियां पुरुषों की जंगम सम्पत्ति समझी जाती थीं, और उनकी सामाजिक अवस्था गुलामों जैसी थी। प्राय: युवक युवतियों को उनके पिताओं से खरीद लेते थे। और ऐसी लड़कियों पर उनका पूर्ण अधिकार होता था। प्लेटो ने जब नवीन राष्ट्रीयता के सिद्धान्त बनाए तो उनका असर समाज पर भी पड़ा। स्पार्टा में कमज़ोरों और बूढ़ों से उनकी युवती पत्नियां कानूनन छीन ली जाती थीं, और बलवान युवकों को दे दी जाती थीं। परन्तु समय बदलता गया। रोमन विजयों ने प्राचीन यूनान के सब रीति- रस्मों में क्रान्ति ला दी। यूरोप में भी मिल और रस्किन जैसे समर्थ मनस्वी पुरुष हुए, जिन्होंने स्त्रियों की दशा को बहुत उन्नत किया। मिल ने स्त्री-पुरुष को समान बताया, जिससे स्त्रियों में पति पर विजय पाने की शक्ति बढ़ती गई। रस्किन ने नारी जाति को शक्ति के शिखर पर पहुंचा दिया। उसने समाज-रचना में स्त्री का महत्त्व वरिणत किया। उसका कहना है, पुरुष कर्ता, स्रष्टा, अन्वेषक और रक्षक है। उसकी बुद्धि चिंतन और आविष्कार के लिए है। पर नारी की शक्ति शासन के लिए है, युद्ध के लिए नहीं। उसमें आविष्कार और रचना की सामर्थ्य नहीं है, शासन-प्रबन्ध और निर्माण की शक्ति है। वह वस्तुओं के उचित तत्त्व, गुण और अधिकार और स्थान की परख कर सकती है, अपने कर्तव्य और स्थान के लिहाज़ से वह सारी आपत्तियों तथा प्रलोभनों से बची रहती है। इन बातों ने यूरोप में पत्नीत्व की प्रतिष्ठा पुरुष की समान भूमि में
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