२०० बगुला के पंख येन केनापि दातव्यं यद्वा तद्वा भविष्यति ।' संतानोत्पत्ति की चर्चा करते हुए वे फ्रांस का उदाहरण देते हैं, जहां की जनता बेलगाम सहवास-प्रानन्द उपभोग करने के लिए सन्तानोत्पत्ति पर अंकुश रखती थी। और अब जब वहां जन्म के मुकाबिले मृत्यु बढ़ती गई, तो वे संतानोत्पत्ति का धर्म सिखाने लगे । गत महायुद्ध में जब फ्रांस में बीस लाख विधवाएं हो गईं तो वहां यह समस्या उठ खड़ी हुई कि उनका क्या उपयोग किया जाए। पहले सोचा गया कि उन्हें विदेशियों को ब्याह दिया जाए। पर बाद में दूसरा ही निर्णय किया गया और उन्हें मुक्त सहवास का अवसर दे दिया गया। स्त्री-पुरुष के लिए संयुक्त स्नानगृह, विहार आदि खोल दिए गए, जहां स्त्री-पुरुष सुविधा से परस्पर मिल सकते थे। और उनकी इस अवैध संतति को राज्य' ने रक्षित और शिक्षित करने का कार्य यत्न से अपने हाथ में लिया था। टाल्सटाय कहता है कि आध्यात्मिक दृष्टि से स्त्री पुरुष से कम है । उसका कहना है कि भले ही तुम उनके अधिकारों पर नियन्त्रण न करो, उनका आदर- प्रेम पुरुषों के समान ही करो, और अधिकारों के मामलों में उन्हें पुरुषों ही के समान समझो, परन्तु एक स्त्री पुरुष के समान बुद्धि, मानसिक विकास और अन्य विशेषताएं नहीं रख सकती । स्त्री आध्यात्मिक दृष्टि से कमजोर है। उसे आध्यात्मिक समता की कीच से दबाना निर्दयता है । अलबत्ता स्त्रियों में मन को वश में रखने की क्षमता पुरुष की अपेक्षा अधिक है । किन्तु बुद्धि के प्रावेशों पर उनकी श्रद्धा नहीं होती। वेद का एक वाक्य है कि सद्गुणी युवतियां उपयुक्त युवकों के पास जाएं । निस्संदेह यह वाक्य स्त्री को पत्नीत्व से नहीं बांधता । यूनानी तत्त्ववेत्ता प्लेटो कहता है-सभी स्त्री-पुरुष राष्ट्रीय सम्पत्ति हैं । बलवान और स्वस्थ स्त्री-पुरुष चाहे जिस स्त्री-पुरुष से कुछ समय तक सम्बन्ध रखकर सन्तान उत्पन्न करें। प्लेटो स्पष्ट ही विवाह का विरोधी है। परन्तु प्लेटो के इस सिद्धान्त में मनुष्य- स्वभाव की तथा स्त्री-पुरुषों के प्रकृत आकर्षण की स्पष्ट अवहेलना की गई है। उसके सिद्धान्त में मातृत्व का, पितृत्व का, पति-पत्नीत्व का कोई स्थान नहीं है। रोमन पद्धति में स्त्रियों की स्वाधीनता सुरक्षित थी । ईसा स्त्रियों के सम्बन्ध में उदार था, पर बाद के ईसाइयों ने स्त्री के प्रति अत्यन्त हीन भाव, विरक्ति के, प्रकट किए हैं। टाल्सटाय विवाह-संस्था को ईसाइयत के विपरीत मानता
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