बगुला के पंख १६६ लब था, ऐश्वर्य में वह शराबोर था; परन्तु था समुद्र की भांति मर्यादित, संयत । कामतत्त्व उनके नारीत्व में न था, पत्नीत्व में था । परन्तु अब उनके समूचे संस्कारों, संयमों, मर्यादाओं की सीमा का उल्लंघन करता हुआ वह काम- तत्त्व पत्नीत्व के कवच को तोड़ता-फोड़ता नारीत्व की ओर उमड़ा चला आ रहा था । और उनका सारा ही संयम जैसे खर्च होता जा रहा था । परन्तु जैसे अज्ञात ही में इस अंतर्द्वन्द्व में उनकी चेतना में उनकी एक अयोग्यता की पूर्ति भी छिपी हुई थी जो इस सम्पूर्ण प्रवृत्ति की मूलधारा थी-वह थी, पुत्र- प्राप्ति की सम्भावना, जो उनको सफल नारी और सुर्खरू पत्नी बना सकती थी। और जिसके लिए श्रीमती बुलाकीदास की श्रेणी की स्त्री बड़े से बड़ा मूल्य चुकाने पर आमादा हो सकती थी। जुगनू इस समय उस अवस्था को पहुंच चुका था जबकि पुरुष को स्त्री की अत्यन्त आवश्यकता होती है। उसका स्वास्थ्य उत्तम था, यौवन उठता हुआ था, वासना अमर्यादित थी। वह हकीकत में समाज की मर्यादा से बद्ध न था। उसका न कोई इतिहास था, न वह खानदानी व्यक्ति था । न वह चरित्र से, न अादर्श से, न संयम से अनुबंधित था । परिस्थितियों ने उसे सभ्य- शिष्ट समाज के साथ जकड़ दिया था पर वह सभ्य-शिष्ट तो कतई न था । परन्तु उसे दुराचारी या लम्पट कहने की अपेक्षा यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि वह काम की भूख से पीड़ित था । और अपनी इस भूख की निवृत्ति के लिए वह खून तक कर सकता था । विवेक और शील का तो उसकी चेतना में कोई स्थान ही न था। फिर भी वह प्रकृत अपराधी पुरुष न था-बस, यही खैरियत थी। गांधीजी का कहना है कि यह आवश्यक नहीं कि स्त्री-पुरुष को इसीलिए विवाहित होकर रहना चाहिए कि वे सन्तानोत्पादन करें या कामवासना की पूर्ति करें। वे इस बात को मान लेने का कोई कारण नहीं देखते कि स्त्री-पुरुष जैसे भिन्नलिंगी जोड़ों की संगति के मूल में संतानोत्पादन की भावना है। वे दम्पति के प्रेम के मूल में प्राणीमात्र की एकता की साधना की कल्पना करते हैं। परन्तु उनकी ये बातें सारहीन हैं और उस अनाड़ी आदमी के कथन के समान हास्यास्पद और अव्यवहार्य हैं जो चिकित्साशास्त्र को तो नहीं जानता, सिर्फ इतना जानता है कि रोगी को दवा देने की एक परिपाटी है, अतः कुछ न कुछ दवा देने से फायदा ही हो जाएगा । 'येन केन तरोर्मूलं येन केनापि पेषितम् ।
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