१९८ बगुला के पंख ६० मानसिक शक्तियों के विकास के साथ ही कामवासना भी शरीर में विक- सित होती है। निस्संदेह, चरम सीमा तक भड़की हुई कामवासना संसार की सबसे बहुमूल्य मणि है । परन्तु यह क्षण जीवन का सबसे नाजुक क्षण है । यौवन के विकास के साथ काम-शक्ति का वेग स्वाभाविक ही बढ़ता है । स्वाभा- विक रूप में इसका निवारण नहीं किया जा सकता । हमें यह तथ्य नहीं भूलना चाहिए कि शारीरिक आवश्यकताएं अनिवार्य हैं। गांधीजी काम-विकास को रोकने की दो विधि बताते हैं । एक संयम, दूसरी प्राणशक्ति का संचय । उन्होंने रहन-सहन और भोजन की सादगी तथा विचारों की शुद्धता पर जोर दिया है, परन्तु उन्होंने उस वैज्ञानिक, नैसर्गिक आवश्यकता को नहीं विचारा जिसकी धारा शरीर में काम कर रही है। कामोत्तेजना स्वस्थ शरीर में एक आग जलाती है और इस आग से कीड़े-मकोड़े भी मस्त हो जाते हैं। कामोत्तेजना से रक्त की उत्तमता का गहरा सम्बन्ध है । जितना ही रक्त उत्तेजित होगा, उतना ही स्वास्थ्य उत्तम होगा । रक्त की उत्तेजना ही काम की उत्तेजना है। 'मर्द'-जिज्ञासा ने जैसे श्रीमती बुलाकीदास के नारीत्व को झकझोर डाला। उसी भांति 'मोती वींधने' के रहस्य ने जुगनू के पुरुषत्व को दमित कर दिया। श्रीमती बुलाकीदास एक संयत, शीलवती, कुलीन, सम्भ्रान्त, प्रौढ़ नारी थीं और जुगनू एक असंस्कृत, हीनकुल, चरित्रहीन तरुण युवा था । श्रीमती बुलाकीदास का नारीत्व पत्नीत्व के आवरण में जकड़ा हुआ और प्रक्षिप्त था, परन्तु जुगनू का पुरुषत्व सर्वथा उन्मुक्त, उन्मन' और उच्छखल था। दोनों के बीच समाज था-समाज की मर्यादा की दुरूह दीवार थी। परन्तु दोनों की अन्तर्दृष्टि एक दूसरे पर केन्द्रित हो रही थी। लाख-लस बार भूलने की चेष्टा करने पर भी श्रीमती बुलाकीदास के स्मृतिपटल पर जुगनू का वह अश्रुतपूर्व वज्रवाक्य' जैसे तप्त लौहशलाका से प्रतिक्षण शत-सहस्र बार लिखा जा रहा था, और उसीके साथ प्रतिक्षण शत-सहस्र बार जुगनू का ताज़ा यौवन से भरपूर बलिष्ठ और आकर्षक शरीर ज़बर्दस्ती उनके मानस- नेत्रों में घुसा पड़ रहा था। उनका यौवन अब चढ़ाव पर न था, परन्तु लबा-
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