पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/१९९

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बगुला के पंख १६७ देखिए । वे असल पतिव्रता हैं या नहीं। स्वीकार करता हूं, सोशल हैं, पढ़ी- लिखी हैं, पर्दानशीन हैं, पर बाहरी लोगों से हंस-बोल लेती हैं। फिर भी वे पति- व्रता हैं । लाला बुलाकीदास का कद्द के समान शरीर है। उम्र उनकी पिलपिली है। उनके लिए उनकी पत्नी केवल धरमपत्नी ही है, अर्थात् पूरे इत्मीनान से वह घर में धरी हुई है-जैसे तालाबन्द सेफ में उनके जवाहरात हिफाज़त से रखे हैं। वे परपुरुष का ध्यान भी नहीं करतीं। हां, उन्होंने पुत्र उत्पन्न नहीं किया। हो सकता है, यह लाला बुलाकीदास की ही अयोग्यता हो, पर श्रीमतीजी ने उसे अपनी ही अयोग्यता मान लिया है। कहिए ! यह क्या पातिव्रत धर्म नहीं है ? इस नेहरू-युग में आप इससे अधिक और क्या चाहते हैं ? पर इस जुगनू के बच्चे की हिमाकत देखिए, क्या तीर मार गया। साफ कह गया, 'बच्चा मर्द से होता है।' श्रीमती बुलाकीदास तभी से बेचैन हैं । पातिव्रत धर्म उनका एक बार ज़ोर से डगमगा गया। जैसे उसपर अगुवम का प्रहार हुआ हो। गंडे-ताबीज, दवा-दारू उन्होंने बहुत किया, पति उनके लाला बुलाकीदास कायम हैं- धनी-मानी, सज्जन, सद्गुणी । परन्तु वे मर्द भी हैं अथवा कितने अंश तक मर्द हैं, इसपर श्रीमतीजी ने विचार ही नहीं किया था। पति को वे यथेष्ट समझती थीं। अब पति के अतिरिक्त उन्हें मर्द भी चाहिए, यह उन्होंने कभी नहीं सोचा था। वे लज्जित थीं, दुखी थीं, निराश थीं कि वे अभी तक पति का उत्तराधिकारी नहीं उत्पन्न कर सकी। वे अपने पत्नीत्व को व्यर्थ समझती थीं, परन्तु जुगनू तो ऐसी बात कह गया कि उन्हें प्रथम बार ही इस बात का पता लगा कि इस धर्म की पूर्ति के लिए जिस महौषधि की आवश्यकता है, वह उनके लिए सर्वथा दुष्प्राप्य' है। परन्तु वह महौषधि होती कैसी है ? यह जिज्ञासा उनके रक्त की प्रत्येक बूंद में घर कर गई।