१६४ बगुला के पंख प्रेम है, और है आत्मसमर्पण की भावना । कष्ट सहन करने में उसकी समता पुरुष नहीं कर सकते । पुरुष की लालसा की तृप्ति करने में दुनिया की कोई वस्तु नारी की समता नहीं कर सकती । राम-रावण का युद्ध, कौरव-पांडवों का युद्ध, ट्राय को राज्य-विध्वंस नारी की बहुमूल्यता के साक्षी हैं। मनु का यह वाक्य कि 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः' नारी के महत्त्व पर यत्किचित् प्रकाश डालता है, परन्तु नारी की यह बहुमूल्यता, यह पूजा उसके उन नैसर्गिक गुणों के कारण नहीं है जो उसमें हैं और अभी ऊपर जिनकी हमने चर्चा की है । नारी का सबसे बड़ा मूल्य केवल एक बात में ही निहित है कि वह पति के लिए उसकी सम्पत्ति का उत्तराधिकारी उत्पन्न करती है । और यदि किसी नारी में यह योग्यता न प्रमाणित हो—वह पति की सम्पत्ति का उत्तराधिकारी न उत्पन्न कर सके, तो वह चाहे भी कैसी रूप, गुण, त्याग, शीलसम्पन्न हो, कैसी भी पद्मिनी जाति की नारी हो, पत्नी वह दो कौड़ी की भी नहीं है । यह है अन्तर पत्नी में और नारी में, जो नारीत्व के समूचे व्यक्तित्व को पत्नीत्व से पृथक् करता है पत्नीत्व के साथ ही एक और दूसरा गुण है जो नारी का नहीं, पत्नी का ही सद्गुण है, वह है सतीत्व अथवा पातिव्रत। यह गुण कोरा गुण ही नहीं है, धर्म है । इसे धर्म की संज्ञा दी गई है। रामायण, पुराण, महाभारत सभीने इस धर्म के महत्त्व को पत्नी का चरम धर्म बताया है। इस धर्म की महिमा का बखान ऐसा है कि उसे हास्यास्पद कहा जा सकता है। एक पतिव्रता पत्नी अपने कोढ़ी पति को कंधे पर चढ़ाकर उसकी कामवासना की पूर्ति के लिए एक वेश्या के पास ले जा रही थी कि किसी सूली पर लटकते हुए महात्मा ने उसे शाप दिया कि वह सूर्योदय के साथ ही विधवा हो जाएगी। बस सती-पतिव्रता के प्रताप से उस दिन सूर्योदय ही नहीं हुआ । संसार अंधेरे में डूब गया। तब सारे देवताओं ने सती की चिरौरी की। अब शापमुक्त होकर सती ने सूर्य को उदय होने की आज्ञा दी। पतिसेवा में रत एक दूसरी पतिव्रता ने ऐसे महात्मा को भिक्षा के लिए देर तक खड़े रखा जिसने दृष्टि-मात्र से चिड़िया को मार दिया था। उसे ऐसी दिव्यदृष्टि प्राप्त थी कि वह महात्मा की इस सामर्थ्य को भी जान गई थी। और महात्मा के क्रुद्ध होने पर व्यंग्य करना नहीं भूली । अब आप इस सतीत्व या पातिव्रत धर्म का मिलान कीजिए हमारे पूर्वोक्त ..
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