पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/१९२

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बगुला के पंख साथ थी। जब वे 'देश में गोवध नहीं होगा', 'हमारा देश अखण्ड है', 'काश्मीर हमारा है', के नारे लगाते, तो धर्मभीरु स्त्री-पुरुष भाव-विमोहित हो इन नारों का मन ही मन अनुमोदन करते थे। परन्तु इन नारों से चुनाव का क्या सीधा सम्बन्ध है, इसपर वे विचार नहीं करते थे। कर भी नहीं सकते थे। न उन्हें इसी बात की परवाह थी कि किस ओर से कौन उम्मीदवार है, और उसकी व्यक्तिगत योग्यता क्या है। बस वे तो यही जानते थे कि जनसंघ और कांग्रेस की टक्कर है। जनसंघ गोहत्या का विरोध करता है, देश को अखण्ड कहता है, काश्मीर पर दावा करता है । अवश्य ही कांग्रेस इन बातों की विरोधिनी होगी, अतः कांग्रेस की अपेक्षा जनसंघ ही ठीक है । बस जनसंघ का बोलबाला बुलन्द हो रहा था। ५८ कांग्रेस पार्टी के सारे आन्दोलन का नेतृत्व विद्यासागर कर रहा था। लाला फकीरचन्द के दिए दो लाख रुपयों को इस चुनाव में खर्च करने का उसे पूरा अधिकार मिला हुआ था। अव जुगनू राज्यसभा के लिए नामज़द हो चुका था, जिसके मुकाबिले जनसंघ ने संघ के प्रसिद्ध बंगाली सदस्य फणीन्द्र बनर्जी को खड़ा किया था। यह जोड़-तोड़ पहले से भी कड़ा था और अब दोनों दलों में चालें चली जा रही थीं। श्यामाप्रसाद मुकर्जी का देहान्त संदिग्ध अवस्था में काश्मीर में हो चुका था। इसी स्टंट को लेकर फणीन्द्र बाबू ऐसी आग बरसा रहे थे कि कांग्रेसी भी उनके सामने नहीं ठहर सकते थे। फणीन्द्र बाबू बड़े भारी वाग्मी और बंगाल के प्रसिद्ध वकील थे। यह एक मार्के की बात है कि हिन्दूसभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अब जनसंघ-सभीके चोटी के नेता या तो बंगाली थे या महाराष्ट्रीय । उत्तर भारत के करोड़ों जन उनके अधीन थे, उन्हें अपना नेता मानते थे। जनसंघ का कोई तेजस्वी नेता न दिल्ली में था न उत्तर प्रदेश में। सारी जमापूंजी बंगाल की और महाराष्ट्र की थी। फिर भी उसका सबसे अधिक प्रभाव लाला लोगों पर था, जो स्वभाव से ही धर्मभीरु होते हैं, और आसानी से काबू में लाए जा सकते हैं।