बगुला के पंख १८६ दिल्ली के प्रसिद्ध व्यवसायी लाला फकीरचन्द ने जनसंघ को त्यागकर कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने का निश्चय किया है, साथ ही कांग्रेस को दो लाख रुपयों का दान दिया है, यह खबर आनन-फानन नगर में फैल गई ; पत्रों ने बड़े-बड़े चित्रों के साथ उनका प्रशस्ति-गान किया। जनसंघ में इससे भारी क्षोभ छा गया। जनसंघियों ने उनकी सात पीढ़ियों के सच्चे-झूठे गुण-दोषों के विवरण बड़े-बड़े पोस्टरों में छापकर नगर में लगाए। अनुकूल और प्रतिकूल वातावरण में एक सप्ताह तक लाला फकीरचन्द नगर के प्रमुख लक्ष्यबिन्दु बने रहे । मुंशी जगनपरसाद ने उनके लिए अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली है, इसकी चर्चा ने जुगनू के सुयश में भी चार चांद लगा दिए । कांग्रेस ने उनके लिए तुरन्त राज्यसभा के लिए एक सीट की व्यवस्था कर दी। उधर जनसंघ ने लाला फकीरचन्द के मुकाबिले जोगीराम को खड़ा कर दिया। लाला लोग जोगीराम को लेकर खूब हुल्लड़ मचाने लगे। अब तो दोनों ओर से चुनाव के सारे ही हथकण्डे आज़माए जा रहे थे। कांग्रेस की प्रभातफेरियां निकल रही थीं, और जनसंघ के बड़े-बड़े जुलूस निकल रहे थे। दोनों के प्रोपेगेण्डा में दिल्ली झूले में झूल रही थी। जनसंघ का चुनाव-क्षेत्र नगर के मध्य भाग के लाला लोगों के मुहल्ले ही में था। वहां दिन-रात भट्टी सुलगती रहती थी। और कढ़ाई में पूरी-हलुआ प्रचारकों और स्वयंसेवकों के लिए तैयार होता रहता था । गोस्वामी गीतानन्द अपनी शिष्यामण्डलीसहित यहां जमे थे। नित्य उनके कभी इस मुहल्ले में, कभी उस मुहल्ले में प्रवचन होते थे। वे प्रत्येक घर में जाते, कमण्डलु से गंगाजल गृहस्थ के हाथ पर टपकाते और गोवध नहीं होगा, वे वचन लेते थे। भला कौन हिन्दू इस वचन की अवहेलना कर सकता था ! हज़ारों आदमी उनके भक्त बन गए थे। भक्तजन उनके तप-त्याग के बड़े-बड़े तराने गाते रहते थे। तीसरे पहर से ही स्वयंसेवकों का जुलूस जनसंघ के नारे लगाता, नगर के गली-कूचों में चक्कर लगाने लगता था । नागरिकों के तरुण पुत्र अधिकांश में स्वयंसेवकदल में सम्मि- लित थे। और स्वाभाविक था कि उनके माता-पिता की सहानुभूति भी उन्हींके
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