बगुला के पंख १७७ 'जब फूलमालाओं से लाद दिए जाओगे, तब पता लगेगा।' 'अच्छा तो देखा जाएगा। पर भाषण का काम ज़रा मुश्किल है जोगीराम ।' 'मुश्किल कुछ नहीं है, जैसे पंचायत में कहा-सुनी होती है, बस वैसे ही भाषण होता है। बस, वहां कोई गैर तो होगा नहीं, सब अपने ही लौंडे-लारे होंगे। उनके सामने काहे की शरम । बस दो-चार बात ध्यान में रखनी हैं, हिंदू धर्म की जय' हो, गोवध बन्द हो, पाकिस्तान मुर्दाबाद, काश्मीर हमारा है । बस जै गंगाजी की। लाला फकीरचन्द हंस दिए । उन्होंने कहा, 'भाई जोगीराम, तू तो फर्वट हो रहा है । पर मेरे बस का यह धन्धा नहीं है।' 'जीजाजी, जब तुम शेर की तरह लाखों में दहाड़ोगे तो देखना क्या समां बंधता है । चिन्ता न करो ! मैं सब ठीक कर लूंगा।' 'तो तू जा न भई, खर्च की बात तो यह कि-समझेंगे एक साल ब्लैक में कमाया ही नहीं।' 'बस, बस, तो समझ लो बानक बना-बनाया है। शाम को मैं आपको ले चलूंगा।' जोगीराम कृतकृत्य' हो वहां से चल दिए। और लाला फकीरचन्द मिनिस्टरी के सपने देखने लगे। ५२ जुगनू का घर दुनिया भर के आवारागर्द शोहदों का अड्डा बना हुआ था। जिन्हें न कोई काम था, न रोज़गार, वे कांग्रेस के वर्कर बने हुए थे। स्कूल- कालेज की पढ़ाई से जी चुरानेवाले, घर से भागे हुए युवक अब देश की धुन में देश के नाम पर गुण्डागर्दी के लिए उधार खाए बैठे थे । लोकसभा के चुनावों की सरगर्मी बढ़ गई थी। जुगनू को कांग्रेस ने उम्मीदवार चुना था। और अब चुनाव जीतने के लिए सब भांति के हथकण्डों की ज़रूरत थी । जुगनू इस बात को जानता था । और उसने इन आवारागर्दो की कीमत समझ ली थी, और घर में लंगर खोल दिया था, चाहे जो आए, खाए, और जुगनू के चुनाव जीतने
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