बगुला के पंख 'तो लामो दो,' शारदा के चेहरे पर फिर वही सरल हास्य' खेलने लगा। जुगनू ने फाउण्टेन पैन उसके हाथों पर रख दिया। शारदा खुश होकर कलम को देखने लगी। फिर उसने मुस्कराकर कहा, 'बहुत अच्छा कलम है, कितना खर्च कर दिया? 'मैं बहुत व्यस्त था । आ नहीं सका।' उसकी वाणी अटपटी और वाक्य असम्बद्ध थे। पर शारदा का इन बातों पर ध्यान ही न था। उसने कहा, 'तुम झूठ बोल रहे हो मुंशी। मैं तो तुम्हें बहुत याद करती हूं। आज भी तुम जाने कहां-कहां रहे। तुमने अपनी नज़्म नहीं सुनाई । मेरी सहेलियां तुम्हारी नज्म सुनना चाहती थीं।' 'शारदा क्या सचमुच तुम मुझे याद करती हो ?' 'प्रोह, बहुत, बहुत ! तुम कभी-कभी हमारे यहां आया करो।' 'लेकिन जल्द ही तुम्हारी शादी हो जाएगी, और फिर हम-तुम कभी मिल भी न सकेंगे। शारदा लजा गई । उसने कहा, 'क्यों भला ?' 'यह बात तुम शायद न समझ सको।' 'क्यों नहीं समझ सकूँगी ?' 'क्या तुम मुझपर भरोसा करती हो ?' 'हां, हां, क्यों नहीं।' 'तो मैंने तुमसे अभी क्या कहा था ?' 'किस विषय में? 'तुम्हारी शादी के विषय में ।' शारदा फिर लजाकर हंसने लगी। उसने कहा, 'मुंशी, तुम बड़े खराब आदमी हो।' 'अच्छा तुम एक वादा करो।' 'अच्छा वादा करती हूं, पर किस बात का ?' 'इस बात का कि तुम जब किसीसे ब्याह करो तो मुझसे सलाह लेकर।' शारदा ने जवाब नहीं दिया। वह शर्मा गई। जुगनू ने फिर आहिस्ता से कहा, 'और यह बात किसीसे न कहना। बाबूजी से भी नहीं। अपनी माताजी से भी नहीं।'
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