१६० बगुला के पंख बचपन ही से बच्चों को भिन्नलैगिकता का अभ्यास कराया जाता है। लड़के और लड़कियों के रहन-सहन, वस्त्र-विन्यास सब पृथक्-पृथक् होते हैं । लड़के प्रायः साहसी और लड़कियां चंचल होती हैं। दोनों मोहक खेल खेलते हैं । इसका एक कारण यह है कि काम-चेष्टाएं बच्चों से छिपाई जाती हैं, पर वे छिपी नहीं रहतीं, और उनके मन में उनके प्रति कौतूहल जागरित होता रहता है, जो धीरे-धीरे उनकी मनोभावना में मिल जाता है—यही काम-विकास का प्रथम मार्ग है। काम-सम्बन्धी प्रत्येक वस्तु उनसे यत्नपूर्वक छिपाई जाती है, इससे उनकी उत्सुकता और बढ़ जाती है। इस प्रकार कामरहित प्रेमभावनाएं आगे चलकर यौवनोदय' के साथ ही कामपूरित हो जाती हैं । माता बच्चों को न केवल आराम पहुंचाती है, वह उनका भौतिक रूप से पालन-पोषण भी करती है । वह भोजन कराती है, शरीर साफ करती है, इन्द्रियों को भी साफ रखती है। इसीसे माता का प्रेम सबसे निराला होता है। बड़े होने पर बच्चे को माता की सहायता की आवश्यकता नहीं रहती। और जब वह युवा होकर जीवन-युद्ध के लिए तैयार होता है तो माता के स्थान पर स्त्री- वर्ग का प्रेम उसके हृदय में उत्पन्न हो जाता है। प्रायः लड़के-लड़कियां ज्योंही यौवनोदय से आक्रान्त होते हैं, अपने को अकेला अनुभव करने लगते हैं, तथा भिन्नलिंगी का अभाव उन्हें अखरने लगता है । इसी समय' काम-वेग उन्हें पीड़ित करने लगता है । और इस प्रकार भिन्नलिंगी आकर्षण उन्हें आहत करने लगता है। यहां एक और बात है, अत्यन्त कोमल भाव जो दूसरे से किसीपर आता है, अधिक शक्तिशाली होता है। केवल यही बात है जो नवयौवन में क्रान्ति लाती है। और इस प्रकार तरुण-तरुणी प्रेमानन्द की अनुभूति करते हुए कामवासना की प्रचण्ड दुपहरी में जा पहुंचते हैं। एक बात ध्यान रखने योग्य है, प्रेम का उदय विचार से होता है। परन्तु प्रेम को संयम में रखने की बड़ी अावश्यकता है। शरीर भी एक यन्त्र है, और यन्त्र से उतना ही काम लेना चाहिए जितना काम करने की उसमें क्षमता हो । प्रेम में काम-विकार का मिश्रण होने से उत्तेजना उत्पन्न होती है, परन्तु वह यदि सीमा से बाहर हो जाता है तो भयानक है । एक बालक जिसके लिए सब कुछ नया है, प्रत्येक भौतिक अनुभूति से ब-१०
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