१५४ बगुला के पंख , 'तो देखिए, और दिमाग दौड़ाइए । कितने भद्दे होंगे ये मनहूस महलात । इतनी मोटी-मोटी दीवारें, वेतुके महराब, भोंड़े गुम्बज और इनके साये में कितने जुल्म, कत्ल और बलात्कार हुए होंगे। कौन जाने !' 'लेकिन साहब, आजकल के लोग ऐसे महलात नहीं बना सकते ।' 'कैसे बना सकते हैं ! आजकल जब बिजली के प्रकाश से दुनिया जगमग कर रही है, तो कौन मिट्टी का दिया जलाएगा। पर बहुत लोग पुराणपन्थी होते हैं । वे हर पुरानी चीज़ में एक विशेषता देखते हैं। और समझते हैं, ऐसी चीजें आज नहीं बन सकतीं। आप भी शायद वैसे ही विचार रखते हैं।' 'देखता हूं, आप इतिहास के अच्छे जानकार हैं।' 'जी, मैंने इतिहास ही में थीसिस लिखा था। खासकर दिल्ली के पुराने इतिहास में मेरी खास दिलचस्पी है।' 'यह क्यों भला ?' 'दिल्ली के समान रहस्यों से परिपूर्ण, राजनैतिक ताने-बाने का पेचीदा पुराना शहर और कौन होगा ? गुलामों, पठानों, खिलजियों, सैयदों और मुगलों के कितने उतार-चढ़ाव दिल्ली ने देखे । कितने कत्लेग्राम यहां हुए। कितनी बार दिल्ली बसी और उजड़ी। कितनी कड़वी-मीठी यादगारे यहां सो रही हैं। कितने ऐतिहासिक तथ्य यहां ज़मींदोज हैं। इसीसे ।' 'कुछ रुककर परशुराम ने जुगनू की ओर देखा, फिर कहा, 'आज ज़माना बदल गया, अंग्रेज़ों नई दिल्ली बसाई। इसे नई दुनिया ही कहा जा सकता है। पर पुरानी दिल्ली में अब भी मुगल-प्रभाव बना हुअा है। वहां के पुराने रईसों के रहन-सहन, चाल- चलन, बातचीत सभीमें मुगल-प्रभाव है। यहां तक कि सोचने-विचारने में भी।' 'परन्तु आप यह कैसे कह सकते हैं ! आज की पुरानी दिल्ली भी नये रंग में रंग गई है। 'केवल बाहर ही से । आप अपनी ही बात ले लीजिए। इन बैडोल खंडहरों पर आप मोहित हैं। आपका ख्याल है, पुराने जमाने के इन महलात का मुका- बिला आज का स्थापत्य नहीं कर सकता। यह क्या इस बात का प्रमाण नहीं है कि आपके खून में मुगल-प्रभाव कायम है ? और आप दिल्ली की हर पुरानी चीज़ को आज भी प्रत्येक उत्तम वस्तु की अपेक्षा प्रशंसा की नज़र से देखते हैं।' 'परन्तु यह क्या मेरा दोष है ?'
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