बगुला के पंख १५३ ४४ शारदा ने बहुत ही सादा लिबास धारण किया था। सफेद सिल्क की सलवार और कमीज़ और उसपर सफेद ही दुपट्टा । वह प्रत्यक्ष ही शरद ऋतु की देवी बन रही थी। इधर तीन-चार मास से जुगनू ने उसे देखा नहीं था- आज जो देखा तो जैसे उसकी सम्पूर्ण चेतना को शारदा की वह मूर्ति आहत कर गई । उसे आज शारदा में बहुत परिवर्तन नज़र आ रहे थे । उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे एकाएक इन्हीं तीन-चार महीनों में उसकी जवानी अधिक उभर आई है । वह दूर ही दूर से उसे ललचाई नज़रों से देख रहा था। वह इस जुगत में था कि एकान्त में उससे दो वात करे। एक कीमती फाउण्टेन' पैन भी वह उसके लिए खरीद लाया था। उसे भी वह एकान्त में ही उपहारस्वरूप देना चाहता था, यद्यपि उसकी यह अभिलाषा बहुत ही भौंडी थी। परन्तु उसे जिस बात का भय था, वही हुई । सामने ही उसकी नज़र परशुराम पर पड़ी। वह एक बड़े से पत्थर का सहारा लिए लान पर लेटा हुआ कोई पुस्तक पढ़ रहा था । जुगनू उसकी नज़र बचाकर खिसक जाना चाहता था, परन्तु परशुराम ने उसे देख लिया। उसने पुकारा, 'इधर ही चले पाइए मुंशीजी, यह बहुत अच्छी जगह है ।' हाथ की सिगरेट फेंककर जुगनू को उधर जाना पड़ा । यथा- साध्य मित्रता के भाव प्रकट करने के लिए हंसते हुए उसने कहा, 'नमस्कार मास्टर साहब । यह क्या, आप सबसे अलग अपनी दुनिया बसाए यहां पड़े हैं। कहिए मिज़ाज कैसे हैं ?' 'मिज़ाज अच्छे हैं । आप अपनी कहिए, अाजकल तो फसल के दिन हैं । है न ?' 'कैसी फसल ?' जुगनू ने पूछा। 'अजी, चांदी की,' परशुराम ने हंसते हुए कहा । लेकिन मैं तो आपका मतलब बिलकुल न समझा।' जुगनू ने कहा । तो जाने दीजिए । यह कहिए, पसन्द आई आपको यह जगह ?' परशुराम ने कहा । 'अच्छी जगह है साहब, बहुत अच्छी । मैं तो हैरान हूं। देखिए किस कदर मोटी-मोटी दीवारें, महराब, पुराने जमाने के लोगों की यादगार हैं। यहां आते ही पुरानी दुनिया की याद आ जाती है । पुराने वादशाह किस तरह रहते होंगे, इन बातों पर दिमाग दौड़ने लगता है।'
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