बगुला के पंख १३ है मेरी।' 'मेरा नाम जगनपरसाद है-मुंशी जगनपरसाद ।' 'ऐं ? क्या कहा ?' शोभाराम ने आंखों में प्राश्चर्य भरकर कहा । 'मुंशी जगनपरसाद ।' 'यह कब से ?' 'बस, जब से पैदा हुआ तभी से ।' जुगनू ने हंसकर कहा । 'लेकिन भई, तुम तो मुसलमान हो।' 'जी नहीं। वह तो मैंने जेल में झूठा ही परिचय दिया था।' 'कमाल हो गया। तो तुम हिन्दू हो ?' 'जी हां, जी हां ।' जुगनू ने हंसकर मुख फेर लिया। 'बहुत खासे,' शोभाराम ने कहा। परन्तु जुगनू घबरा रहा था कि कहीं शोभाराम उसकी जात न पूछ बैठे। पर शोभाराम ने और जात-पांत की बात नहीं की। वह इधर-उधर की बात करता रहा । घर आ गया । शोभाराम ने घर में आकर पत्नी से कहा, 'यह मेरे दोस्त मुंशी जगनपरसाद हैं । इनके लिए ज़रा गुसलखाना ठीक कर दो और एक साफ धुली धोती और कुर्ता भी वहां रख दो।' फिर जुगनू की ओर धूमकर कहा, 'भई मुंशी, अब तुम नहा लो और कपड़े बदल लो जिससे तुम्हारी सूरत भले आदमी जैसी हो जाए। फिर खाना खाकर और बातचीत होगी।' जुगनू चुपचाप उठकर गुसलखाने में घुस गया। दिल उसका धड़क रहा था। वह सोच रहा था, देखो, अब विधाता क्या खेल दिखाता है । ३ अपने इधर के जीवन में पहली ही बार गुसलखाने में फव्वारे के नीचे बैठकर, बढ़िया सुगन्धित साबुन लगाकर वह नहाया, नहाकर स्वच्छ खद्दरकी धोती और कुर्ता पहना तो उसका रूप ही बदल गया। वह एक सलोना तरुण-सा प्रतीत होने लगा। आईने के सामने खड़े होकर बड़ी देर तक वह अपनी छटा निहारता रहा । बाहर आकर जब वह बैठकखाने में शोभाराम के पास गया तो शोभाराम दो-तीन मित्रों
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