१४६ बगुला के पंख ४१ 'बज्मे अदब' की सदारत जुगनू ने इस शान से की कि देखनेवाले भी दंग रह गए। भारत, पाकिस्तान और बर्मा तक के शायर इस मुशायरे में आए थे। एक से बढ़कर एक आलिम, प्रसिद्ध और बुजुर्ग । परन्तु सबके सिर पर सदारत की कुर्सी पर यह जाहिल भंगी का बच्चा बैठा था। और जब कोई शायर अपनी दाढ़ी सहलाता हुआ कविता-पाठ करने मंच पर आता, और अदब से 'जनाबे सदर' कहकर उसे सम्बोधित करता तो जुगनू ज़रा मुस्कराकर आहिस्ता से गर्दन टेढ़ी करके सिर हिला देता। हो सकता है कि आप इस बात पर विश्वास न करें। आप शायद सोच रहे हों कि ऊंची कुर्सियों पर बैठने के लिए ऊंची योग्यता दरकार है । परन्तु आपका यह सोचना बेकार है । ऊंची योग्यता का ऊंची कुर्सी से कोई रिश्ता नहीं है । आपमें चाहे जितनी ऊंची योग्यता हो, ऊंची कुर्सी आपको नहीं मिल सकती। ऊंची कुर्सी के लिए उंचा पद चाहिए, और ऊंचे पद के लिए ऊंची अवसरवादिता चाहिए। आप सब ऊंची कुर्सियों पर प्रायः गधों को बैठा देखेंगे । घोड़े सिर्फ बोझा खींचते हैं । गधे ऊंची कुर्सियों पर ऊंघते हैं। आज के सभ्य-शिष्ट समाज का यही दस्तूर है। कहते हैं कि रावण के दस सिरों के ऊपर एक गधे का सिर था। यही गधे का सिर सर्वत्र ऊपर रहता है। आप जिसे भाग्य' कहते हैं, मैं उसे अवसर कहता हूं, आप कहते हैं भाग्य ने, मैं कहता हूं अवसर ने जुगनू को दिल्ली शहर की नामी- गिरामी चेअरमैनी की कुर्सी पर ला बिठाया। वहां वह लाखों नागरिकों के सिर पर पैर रखकर इतमीनान से बैठा अबाध शासन कर रहा था। हजारों छोटे-बड़े उसके द्वार पर हाज़िरी देते थे; सैकड़ों को वह पद, नौकरी, काम, रोज़गार-धन्धे देता था। और ये सब महिमामण्डित काम करते उसे अब एक साल होने आ रहा था, एक बार भी कभी किसीने उसकी योग्यता पर सन्देह नहीं किया, उसके नाम पर उंगली नहीं उठाई । तो दो घण्टे के लिए इस मुशायरे की सदारत की ऊंची कुर्सी पर बैठने की ज़िम्मेदारी निबाहना कौन बड़ी बात है । अरे साहब, दुनिया को आप खोलकर देखिए--अभी अंग्रेज़ी अमलदारी तक भारत में कितने राजा, महाराजा, नवाब थे । सब लाखों मनुष्य के सिर पर
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