पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/१३९

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बगुला के पंख १३७ रहे थे । मुंह में समूची अचार की मिर्च भरी थी, जिसे किसी तरह वह हलक से उतारने का भगीरथ प्रयत्न कर रहा था । लाला बुलाकीदास बारंबार पूछ रहे थे कि और क्या मंगाऊं और जुगनू को उनके लिए मुस्कराना भी पड़ रहा था। क्या किया जाए, दिल्ली की दावत थी। राम-राम करके दावत खत्म हुई। और बहुत इसरार-हुज्जत के बाद जुगनू ने खाने से हाथ खींचा। बड़ी भारी मुहिम फतह हुई। हाथ धोकर वह बैठा तो लाला बुलाकीदास ने सिगरेट पेश की । और इसी समय श्रीमती बुलाकीदास कमरे में हंसती हुई आईं। उनके पीछे से महरा पानों से भरा डला लिए । जुगनू ने खड़े होकर उनकी अभ्यर्थना की। श्रीमतीजी ने पान देने का महरा को इशारा किया, और जुगनू से कहा, 'शायद खाना पसन्द नहीं आया ? कुछ खाया ही नहीं प्रापने !' जुगनू क्या जवाब दे यही न समझ पा रहा था । वह केवल हाथ जोड़कर मुस्करा भर दिया, पर उसका रोम-रोम कह रहा था-कसम है झाड़-टोकरे की, कि ऐसी दावत उसकी सात पुश्त को भी कभी नहीं नसीब हुई थी। इस समय श्रीमतीजी का निखार मोतियों की आभा को मात कर रहा था। उनके व्यक्तित्व में न केवल, सौन्दर्य और भरपूर यौवन ही का प्रसार था, एक ऐसी गरिमा, गांभीर्य और रुबाब का भी उसमें मिश्रण था कि जुगनू को उनके सामने अांखें उठाने और बोलने की हिम्मत नहीं होती थी। उनकी अांखें बड़ी-बड़ी थीं। जिनमें से दया और बड़प्पन' झांक रहा था। उन्होंने देखा, मुंशी कुछ झेप रहा है, तथा बोल नहीं रहा । उन्होंने कहा, 'आपने आज यहां आकर बड़ी कृपा की। आप तो अकेले ही हैं, कभी-कभी पा जाया कीजिए । मैं आपसे एक काम में मदद लेना चाहती हूं।' 'प्राज्ञा कीजिए।' 'मैं अपना एक पुस्तकालय बना रही हूं। मैं चाहती हूं कि कुछ अच्छी- अच्छी पुस्तकें आप मेरे लिए छांट दें, और एक लिस्ट बना दें।' सम्भवतः श्रीमती बुलाकीदास जुगनू को कालिदास का अवतार समझ रही थीं। और जुगनू ने भी बड़ी शान से किन्तु नम्रतापूर्वक कहा, 'बड़ी खुशी से, किन्तु आप कैसी पुस्तकें पसन्द करती हैं ?' 'कविता, उपन्यास, साहित्य, इतिहास सभीमें मेरी रुचि है । मैं चाहती हूं