१२२ बगुला के पंख . 'उसने कहा है कि मैं आपको दावत दूं । किसी दिन भी आप मेरे यहां भोजन कीजिए, आपकी बड़ी कृपा होगी।' राधेमोहन अजब तरह से अपनी उंगलियां मरोड़ रहा था और मुस्करा रहा था। जुगनू ने ज़रा शान से कहा- 'अजीब-सी बात है ! खैर, कभी देखा जाएगा। लेकिन तुम भी तो बिलकुल नौजवान हो, इतनी जल्दी शादी कर ली ? बाल-बच्चे कितने हैं ?' राधेमोहन ज़रा भैप गया। उसने हंसते हुए कहा, 'अभी तो हमी बच्चे हैं साहब, शादी दो ही बरस तो हुए हैं।' एक पाशविक चमक जुगनू की आंखों में और हिंसक मुस्कराहट उसके होंठों में फैल गई। उसने समझ लिया, कोई भोला शिकार है । कुशल शिकारी की भांति उसके कंधे पर हाथ रखकर उठते हुए उसने कहा- 'तुम मुझसे चाहते क्या हो दोस्त ?' 'बस आपकी कृपादृष्टि चाहिए। तो मेरा निमन्त्रण स्वीकार हुआ ?' 'देखा जाएगा। आओ, अभी तुम मेरे साथ प्रायो।' वे वहां से चलकर चांदनी चौक में एक रैस्टोरां में जा बैठे। चाय और नाश्ते का आर्डर देने के बाद बातचीत शुरू हुई। 'हां, तो तुम आर्टिस्ट हो ?' 'जी हां, आर्ट की ओर मेरी बचपन से ही रुचि है।' 'क्या तुम पुश्तैनी आर्टिस्ट हो ?' 'जी नहीं । यों तो हम पंजाबी हैं । हमारे यहां कपड़े का कारोबार होता है।' 'खैर, तो अब तुम्हारे आर्ट के कारोबार का क्या हाल है ? क्या तुम मेरी तस्वीर बना सकते हो ?' 'जी हां, आप हुक्म दीजिए। 'सामने बिठाकर या फोटो को सामने रखकर ?' 'फोटो से अच्छी बन पड़ेगी।' 'अच्छी बात है । एक फोटो मैं तुम्हें दूंगा । फीस क्या लोगे ?' 'आपसे फीस नहीं लूंगा । तस्वीर बनाकर आपकी नज़र करूंगा।' 'तब तो तुम बहुत अच्छे आदमी हो । दोस्त बनाने के काबिल ।' राधेमोहन मूर्ख की भांति हंसने लगा । जुगनू ने कहा, 'तुमने कुछ और
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