बगुला के पंख ११६ 'आप तो पहले ही उनके लिए इतना कर रहे हैं ; आपको धन्यवाद है।' 'आप तो भाभीजी, पराये आदमी की तरह बात कर रही हैं। भला धन्य- वाद की क्या बात है ? मालकिन हंस दी। बड़ी बहारदार थी वह हंसी । जुगनू को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उसके चारों ओर चमेली के फूल बिखर गए हों । जुगनू ने भी हंसकर खड़े होते हुए कहा, 'अब आज्ञा दीजिए, बस इतनी अरदास है, अपना सेवक ही समझिए।' 'अरे, आप तो चल ही दिए । खाना खाकर जाइए।' 'नहीं, इस वक्त नहीं । फिर कभी।' 'वाह, यह कैसे हो सकता है ! वे सुनेंगे तो कितने खफा होंगे !' 'बस, माफी मांग लीजिएगा मेरी तरफ से । मैं फिर हाज़िर होऊंगा।' 'तो इस इतवार को रही ।' 'जैसी आज्ञा । नमस्ते।' 'नमस्ते ।' उस दिन डाक्टर खन्ना के ऐट होम में एक बाहरी व्यक्ति भी सम्मिलित था। वह रिश्ते में शारदा का चचेरा भाई होता था। दिल्ली में नया ही आया था। एक हायर सैकण्ड्री स्कूल में ड्राइंग-मास्टर था । अपने को चित्रकार समझता था। परन्तु कविता करने की उसे सनक थी। कहना चाहिए उसे कवितोन्माद की बीमारी थी। उसका नाम राधेमोहन था। जुगनू के व्यक्तित्व से वह बहुत प्रभावित हुआ । उस दिन पार्टी में उसे जुगनू से परिचित होने का अवसर नहीं मिला था । तव से वह बहुत बार शारदा से चिरौरी कर चुका था कि उसका परि- चय' जुगनू से करा दिया जाए । पर उस दिन के बाद जुगनू वहां आया ही न था। जिस दिन शोभाराम पहाड़ को जा रहे थे, उन्हें स्टेशन पर विदाई देने जुगनू और डाक्टर खन्ना भी पहुंचे थे । कांग्रेस के और भी कार्यकर्ता थे । डाक्टर खन्ना के साथ शारदादेवी थी। और शारदादेवी के साथ राधेमोहन भी था।
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