पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/११७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बगुला के पंख 'हां, क्योंकि तुम्हें इस वक्त भाभी की यादगार के लिए अकेले रहने की सख्त ज़रूरत है।' वह हंसा और चल दिया । ३२ शोभाराम और उनकी पत्नी एक नई चिन्ता में उलझ गए। पहाड़ जाना होगा तो खर्च का कैसे प्रबन्ध किया जाएगा। किसी मित्र से रुपया कर्ज़ लेना शोभाराम पसन्द नहीं करते थे और रुपये प्राप्त करने का दूसरा तरीका उनकी समझ में नहीं आ रहा था। कुछ देर सोचते रहकर उन्होंने धीरे से कहा, 'पांच सौ तो चाहिए ही।' 'इतने से कम में तो काम चलेगा नहीं।' 'लेकिन मुझे तो अभी वही डेढ़ सौ मिलेंगे।' 'इनमें सौ रुपए तो खर्च ही हो जाएंगे। बहुत लोगों को देना है। फिर पहाड़ जाना है तो तैयारी भी करनी पड़ेगी। गर्म कपड़े भी चाहिए।' 'सोचता हूं, अभी टाल जाऊं। अगले महीने देखूगा।' 'न, टालने से नहीं होगा ?' 'तो खर्च का कैसे बन्दोबस्त होगा ?' 'कुछ हो ही जाएगा। पद्मादेवी ने धीरे से कहा । वह मन ही मन सोच रही थी, 'न होगा तो अपने रहे-सहे दो-चार गहने हैं, उन्हें बेच लूंगी। इनसे नहीं कहूंगी।' शोभाराम की पेशानी पर बल पड़ गए। वे सोच रहे थे, 'न होगा तो डा० खन्ना से उधार मांगूंगा।' इसी उधेड़बुन में रात भर दोनों जागते रहे । पद्मादेवी मन ही मन यह हिसाब लगाती रही कि गहने बेचकर कितना रुपया मिलेगा और शोभाराम यह सोचते रहे कि खन्ना ने इन्कार कर दिया तो क्या होगा ! परन्तु दोनों ने मन की बात मन ही में रखी। लज्जा के कारण दोनों ही अपने विचार एक दूसरे पर नहीं प्रकट करना चाह रहे थे। हठात् पद्मादेवी के मन में आया, इन्हें कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा ?