पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/१०२

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१०० बगुला के पंख जोड़कर कहा, 'आपने बड़ी कृपा की मुंशी साहब, जो आपने मेरी दावत कबूल फर्माकर मेरी हौसला अफजाई की।' 'मुझे फुर्सत विलकुल न थी। लेकिन आपका हुक्म मैं टाल न सका।' 'आपकी ऐन इनायत है । आइए !' लाला ने अदब से झुककर इस तरह जुगनू को आगे बढ़ने का इशारा किया जैसे वह कोई. होटल का वेटर है और जुगनू कहीं का नवाब है। तीनों व्यक्ति पहले ही से रिजर्व टेबल पर शान से जा बैठे। एक के बाद दूसरे खाने के विलायती सामान आने शुरू हुए। जब तक दावत होती रही, तीनों व्यक्ति चुपचाप खाते-पीते रहे। बीच-बीच में इधर-उधर की बातें होती रहीं। सिर्फ एक बार जुगनू ने अवसर पाकर नवाब के कान में कहा, 'आखिर इस दावत की मन्शा क्या है नवाब ?' 'चुपचाप देखते रहो और शान से अकड़े रहो । यह मत भूलना कि तुम अब भारत की राजधानी के एक प्रकार के लार्ड मेयर ही हो ।' जुगनू और भी गम्भीर हो गयो । लाला फकीरचन्द ज्यों-ज्यों नम्रता दिखाते, त्यों-त्यों जुगनू और भी बेरुखी और बेपरवाही से पेश आता । इससे शंकित होकर लाला नवाब की ओर अभिप्रायपूर्ण नज़र से देखते। नवाब भेद- भरी मुस्कान से उनका समाधान कर देता। उस मुस्कान का अर्थं था 'फिक मत करो, फिक्र मत करो।' इसी तरह दावत खत्म हुई । वेटर जूठे बर्तन ले गया और काफी के साथ बिल भी ले आया। लाला ने बिल का पेमेण्ट किया। नवाब ने अब लाला को एक इशारा किया । लाला ने कुछ क्षण बाद उठते हुए जुगनू से अत्यन्त अधीनता से कहा, 'बहुत बेअदबी कर रहा हूं, मुंशी साहब । पर मुझे एक निहायत ज़रूरी काम याद आ गया है । इजाज़त चाहता हूं।' जुगनू ने नवाब की ओर देखा । नवाब' का संकेत पाकर उसने कहा, 'कोई बात नहीं लालाजी, आपकी इस दावत के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया।' लाला फकीरचन्द के चले जाने पर जुगनू ने कहा, 'अब हम भी चलें नवाब।' 'जल्दी क्या है, ज़रा और बैठेंगे। काफी अभी खत्म नहीं हुई है । हमें तो लाला की तरह कोई जरूरी काम है नहीं।'