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बगुला के पंख
 

के साथ रहती थी। उसके बाप की उम्र अब यद्यपि साठ को पार कर गई थी, पर बच्चे अभी तक होते जाते थे। इस समय उसके चार छोटे-छोटे बच्चे थे, जिनमें एक नई औरत से था जो रोगी रहता था। उसका जिगर बढ़ गया था, पेट बढ़ गया था, और हाथ-पैर सूख गए थे। इलाज कुछ नहीं होता था, सयाने लोगों की झाड़-फूंक होती थी। गंडे-तावीज़ बांधे जाते थे, मुर्गा और सुअर की बलि दी जाती थी। बच्चा दिनभर रें-रें करता रहता था। और उसकी मां दिनभर गाली-गुप्ता, रोना-पीटना लगाए रहती थी। वह समझती थी कि उसकी ननद ने टोना कर दिया है, वह व्यंग्य-बाणों से उसीको कोसती रहती थी। उसके बच्चे और ये बच्चे सब नंग-धडंग, गन्दे और आवारा सुअरों के साथ खेलते, ऊधम मचाते रहते थे। उसकी बहन का बड़ा लड़का जो अब बारह- चौदह बरस का था, बहुत आवारागर्द और सरकश था। वह बहुधा अपनी मां पर हाथ छोड़ बैठता था। गन्दी गाली बकना तो साधारण बात थी। घर में सब मिलाकर दस-बारह प्राणी थे, जिनके खाने-पीने, रहने-सोने का कोई नियम- मेल ही न था। वे सब एक ही झोंपड़े में, जो दिन में दो बार चूल्हे के धुएं से भर जाता था, पशुओं की भांति रहते थे। सबसे बड़ी बात यह थी कि घर-भर में सिर्फ एक ही चारपाई थी जिसपर उसका बूढ़ा बाप रात-दिन पड़ा-पड़ा हुक्का गुड़गुड़ाता, खांसता-थूकता और गालियां बकता रहता था। बाकी सब लोगों को ज़मीन पर ही सोना पड़ता था।

दो ही चार दिन में उसका मन ऊब उठा। वह घर से निकला। पहले मुरादाबाद गया, पर वहां उसे कोई नौकरी न मिली। फिर वह शिमला गया, पर वहां भी उसे असफलता ही हाथ लगी। वहां से वह देहरादून आया, जहां एक अंग्रेज़ परिवार में उसे बावर्ची के काम की नौकरी मिली। पर प्रथम तो वह ठीक-ठीक बावर्ची का काम करना नहीं जानता था, दूसरे उसकी आवश्यकताएं पूरी नहीं हो पाती थीं, तीसरे उस अंग्रेज़ की औरत बड़ी बद- दिमाग थी। वह उसे वात-बात पर पीट तक देती थी। यहां उसकी मुंशीगिरी हवा हो गई थी। इसी समय उसे दुर्बुद्धि सूझी और वह चोरी करके भागा, परन्तु रंगे हाथों पकड़ा गया। और आठ मास की जेल की सजा हुई। जेल काटकर जब वह बाहर आया तो युग बदला हुआ था । अंग्रेज़ भारत को छोड़ चले थे। कांग्रेस का राज्य हो चुका था। उसने दिल्ली, मेरठ, मुरादाबाद फिर