स्वाधीनताप्रिय हैं, हिन्दू लोग स्वाधीनताप्रिय नहीं हैं—वे शान्ति सुखके अभिलाषी हैं। यह केवल जातीय स्वभावकी विचित्रताका फल है। इसमें विस्मय करनेकी कोई बात नहीं है।
किन्तु बहुत लोग यह बात नहीं समझते। हिन्दुओंके स्वाधीन होने और स्वाधीनता लाभके लिए उत्सुक न होनेके कारण वे यह अनुमान करते हैं कि हिन्दूलोग दुर्बल ( कमजोर ) हैं, लड़ाईसे डरते हैं, स्वाधीनता प्राप्त करने में असमर्थ हैं। वे यह नहीं समझते कि हिन्दूलोग साधारणतः स्वाधी- नता पानेकी अभिलाषा और यत्न ही नहीं करते। अगर वे इसकी अभि- लाषा या यत्न करते तो प्राप्त कर सकते थे।
हम यह नहीं कहते कि स्वतन्त्रतापर अश्रद्धा केवल आधुनिक हिन्दुओंका स्वभाव है। यह हिन्दू जातिका सदाका स्वभाव जान पड़ता है। जो लोग यह समझते हैं कि हिन्दू लोग सातसौ वर्षसे स्वतन्त्रताहीन होकर इस समय स्वतन्त्रताकी आकांक्षासे शून्य हो गये हैं, उनका अनुमान ठीक नहीं है। संस्कृतके साहित्यमें भी कहीं ऐसा कुछ नहीं मिलता कि उससे प्राचीन हिन्दुओंको स्वाधीनताके लिए प्रयास करनेवाला सिद्ध किया जा सके। पुराण- उपपुराण--काव्य-नाटक आदिमें कहीं स्वाधीनताका गुण-गान नहीं है। मेवाड़के सिवा और कहीं नहीं देखा जाता कि कोई हिन्दू-समाज स्वतन्त्र- ताकी आकांक्षासे किसी काममें प्रवृत्त हुआ हो। राजाका राज्य-सम्पत्तिकी रक्षाके लिए यत्न, वीरका वीरदर्प, क्षत्रियका युद्ध करनेका प्रयास—इन बातोंके बहुतसे उल्लेख देखे जाते हैं। किन्तु स्वतन्त्रता पानेकी आकांक्षा इनके बीचमें नहीं है। स्वातन्त्र्य, स्वाधीनता, ये सब नई बातें हैं।
भारतवर्षीय लोगोंकी इस प्रकार स्वतन्त्रताके प्रति स्वभावसिद्ध अव-हेलाके कारणका अनुसन्धान करना ऐसा नहीं कि जाना न जा सके। भारतवर्षकी भूमिकी उपजाऊ शक्ति और वायुमें तापकी अधिकता आदि इसके गौण कारण हैं । पृथ्वी उपजाऊ है, देश सब सामग्रियोंसे परि-पूर्ण है, थोड़े परिश्रमसे निर्वाह हो जाता है । लोगोंको अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ता, इससे यहाँके लोगोंको अवकाश भी यथेष्ट है। शारीरिक
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