श्रेणीके संगीतके सुखका अनुभव शिक्षाके बिना नहीं हो सकता। जिनको अभ्यास नहीं वे जैसे प्याज नहीं खाना चाहते, वैसे ही अशिक्षित लोग उस्कृष्ट संगीतको सुनना नहीं चाहते। दोनों ही बातें अभ्यासके आधीन हैं। संस्कारहीन लोग राग-रागिणी-परिपूर्ण पक्का गाना सनना नहीं चाहते और बहुत अनुप्रासोंसे युक्त यूरोपका संगीत हिन्दुस्तानियोंके लिए जंगलमें रोनेके बराबर है। किन्तु इन दोनोंके लिए अनादरका भाव अस. भ्यताका चिह्न है। जैसे राजनीति, धर्मनीति, विज्ञान, साहित्य आदि विषयोंको जानना सब मनुष्योंके लिए उचित है, वैसे ही शरीरके स्वास्थ्यके लिए व्यायाम और मनोरञ्जनके लिए मनोमोहिनी संगीतविद्या जानना भी हरएक भले आदमीका कर्तव्य है। अभ्याससम्बन्धिनी विद्याओंमें संगीत सर्व प्रधान है। हम लोगोंके भले घरों में लड़कियों और लड़कोंको संगीत- शिक्षा देना निषिद्ध समझा जाना, हमारी असभ्यताका चिह्न है। स्त्रियोंके संगीतनिपुण होनेपर घरमें एक विमल आनन्दकी गंगा बहती है। शौकी- नोंका मद्यपान और एक अन्यदोष उससे बहुत कुछ दूर हो सकता है। इस देशमें निर्मल आनन्दके अभावसे ही बहुत लोग मद्यपान करने लगते हैं— संगीतप्रियतासे ही बहुत लोग वेश्याओंके घर जाने और बिगड़ने लगते हैं।
(१)यशके लिए न लिखना। अगर यशके लिए लिखोगे तो यश भी न मिलेगा और तुम्हारी रचना भी अच्छी न होगी। रचना अच्छी होनेसे यश आप ही प्राप्त होगा।
(२) रुपयेके लिए न लिखना। यूरोपमें इस समय अनेक लोग रुप- येके लिए लिखते हैं और रुपये पाते भी हैं । उनकी रचना भी अच्छी होती है। किन्तु हमारे यहाँ अभी वह दिन नहीं आया। इस समय यहाँ रुप- येके लिए लिखनेसे लोकरञ्जनकी प्रवृत्ति प्रबल हो उठती है। और, हमारे
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