जहाँ आदम और ईश्वरकी कथा है, वही स्थान अधिकतर सुखदायक है। किन्तु ये काव्यके प्रकृत नायक-नायिका नहीं हैं—इनका उल्लेख आनुषंगिक है। आदम और ईश्वर प्रकृत मनुष्य-प्रकृति थे । वे आदिम मनुष्य, पार्थिव सुख-दुःखसे मुक्त निष्पाप थे। जिन शिक्षाओंके गुणसे मनुष्य मनुष्य होता है, उनमेंसे कोई शिक्षा उन्हें नहीं मिली थी। अतएव यह कहना ठीक है कि इस काव्यमें प्रकृत मनुष्यचरित्रका वर्णन ही नहीं किया गया।
कुमारसंभवका कोई पात्र मनुष्य नहीं है। जो प्रधान नायक हैं वे स्वयं परमेश्वर हैं। नायिका परमेश्वरी हैं। इनके सिवा पर्वतराज, उनकी स्त्री, ऋषि, ब्रह्मा, इन्द्र, रति, काम आदि सब देव देवी हैं । वास्तवमें इस काव्यका तात्पर्य बहुत गूढ़ है। संसारमें दो संप्रदायके लोग सदा परस्पर झगड़ा करते हैं । एक इन्द्रियपरायण, ऐहिक सुखमात्रके अभिलाषी, परलोककी चिन्ता न करनेवाले और दूसरे विषयोंसे विरक्त, सांसारिक सुख- मात्रके विद्वेषी, ईश्वरचिन्तामें मग्न। एक संप्रदाय केवल शारीरिक सुखको सारांश समझता है और दूसरा संप्रदाय शारीरिक सुखके साथ अनुचित द्वेष रखता है। वास्तवमें देखा जाय तो दोनों संप्रदायोंके लोगोंकी भ्रान्त धारणा है। जो ईश्वरवादी हैं उन्हें ईश्वरकी दी हुई इन्द्रियोंको अमंगलकर या अश्रद्धेय समझना अनुचित है । शारीरिक भोगकी अधिकता ही दूषणीय है। परिमित शारीरिक सुख तो संसारके नियमोंकी और संसारकी रक्षाका कारण है। वह ईश्वरका आदेश और धर्मको पूर्ण करनेवाला है। शारीरिक और पार- लौकिक सुखके परिणयके गीत गाना ही कुमारसंभव काव्यका उद्देश्य है। पार्थिव पर्वतसे उत्पन्न उमा ही 'शरीर' का रूप हैं और तपस्वी महादेव पार- लौकिक शान्तिकी प्रतिमा हैं।शान्ति पानेकी आकांक्षामें उमाने पहले काम- देवकी सहायता की, किन्तु उपाय निष्फल हुआ। इन्द्रिय-सेवाके द्वारा शान्ति नहीं प्राप्त होती। अन्तको अपने चित्तको शुद्ध कर इन्द्रियासक्तिरूप मलको चित्तसे दूर करके जब उमाने शान्तिमें मन लगाया तब उन्हें शान्ति प्राप्त हो गई। सांसारिक सुखके लिए चित्तशुद्धिकी आवश्यकता है। चित्त- शुद्धि रहनेसे ऐहिक और पारलौकिकमें परस्पर विरोध नहीं होता, दोनों परस्पर एक दूसरेकी सहायता करते हैं।
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