गीतके सुडौल होनेके लिए दो बातोंकी आवश्यकता है। स्वर-चातुरी और शब्द-चातुरी। इन दोनोंकी अलग अलग क्षमता होती है। दोनों क्षमतायें एक ही मनुष्यमें अकसर नहीं देखी जातीं। सुकवि और सुगायक होना हरएकको नसीब नहीं होता।
इसी कारण एक आदमी गीतकी रचना करता है और दूसरा गाता है। इस प्रकार गीतसे गीति-काव्य अलग हो जाता है। गीत होना ही गीति-का- व्यका आदिम उद्देश्य है। किन्तु जब देखा गया कि गीत न होनेसे भी केवल पद्यरचना ही आनन्ददायक है और सम्पूर्ण रूपसे मनोभावको व्यक्त कर सकती है, तब गीतके उद्देश्यपर ध्यान न देकर अनेक गीतिकाव्योंकी रचना होने लगी।
अतएव गीतका उद्देश्य ही जिस काव्यका उद्देश्य है वही गीति-काव्य है। वक्ताके भावोच्छ्रासको व्यक्त करना ही जिसका उद्देश्य है वही काव्य गीति- काव्य है।
जब हृदय किसी विशेष भावसे आच्छन्न होता है, वह स्नेह, शोक, भय आदिमेंसे चाहे जो हो, तब उस भावका संपूर्ण अंश कभी व्यक्त नहीं होता। कुछ व्यक्त होता है और कुछ नहीं व्यक्त होता। जो व्यक्त होता है वह बातचीत और क्रियाके द्वारा । वही बातचीत और क्रिया नाटककार-की सामग्री है। जो उसमें अव्यक्त रहता है वही गीतिकाव्य रचनेवालेकी सामग्री है। जो साधारणतः नहीं देख पड़ता, अदर्शनीय और अन्यके अनुमानमें भी आनेवाला नहीं है, अर्थात् भावयुक्त मनुष्यके रुद्ध हृदयमें उच्छ्रसित है उसीको व्यक्त करना गीति-काव्य-लेखकका काम है। महाका-व्यका विशेष गुण यह है कि कविको दोनों तरहके अधिकार रहते हैं, वक्तव्य और अवक्तव्य दोनों उसके अधीन होते हैं। महाकाव्य, नाटक और गीति-काव्य, इन तीनोंमें यही एक प्रधान प्रभेद जान पड़ता है। अनेक नाटककार इस भेदको नहीं जानते और इसीसे उनकी नायिका और नायकके चरित्र अप्राकृत और बहुतसे वागाडम्बरसे परिपूर्ण हो जाते हैं। सत्य है कि गीति-काव्य-लेखकको भी वाक्यके द्वारा ही रसकी उद्भावना करनी
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