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बंकिम-निबन्धावली—
 

पड़ते हैं तो वे अच्छे हैं या नहीं ? उनके लिए उत्साह देना आवश्यक है या उनका दमन उचित है ? प्रायः साधारण लेखकोंको इन प्रश्नोंकी आलोचना करते नहीं देखा जाता। किन्तु इस विषयसे बढ़कर भारी सामाजिक तत्व भी और कोई नहीं है । इसीसे कहते हैं कि हमारे समाज-संस्कारक लोग नई कीर्ति स्थापित करनेके लिए जैसे व्यग्र हैं, वैसे समाजकी गति देखने में और उसकी आलोचना करनेमें मन नहीं लगाते ।

विषय बहुत ही गुरुतर है। समाजमें स्त्रीजातिका जो बल है, उसका वर्णन करनेकी कुछ आवश्यकता नहीं जान पड़ती। माता बाल्यकालमें शिक्षा देती है, स्त्री मन्त्रीका काम देती है, इत्यादि पुरानी बातोंको फिरसे दुहरा- नेका कुछ प्रयोजन नहीं है। सभी जानते हैं कि स्त्रियोंकी सम्मति और सहा- यताके बिना संसारका कोई बड़ा काम सम्पन्न नहीं होता। गहना गढ़ाने और बैल खरीदनेसे लेकर फ्रेंच राजविप्लव और लूथरके धर्मविप्लव तक सब काम स्त्रीकी सहायताकी अपेक्षा रखते हैं। फ्रान्सकी स्त्रियोंने फ्रेंच राज्यवि- प्लवमें महारथीका काम किया था।

यह कहा जा सकता है कि हमारे शुभाशुभका मूल हमारे कर्म होते हैं। कर्मोकी मूल प्रवृत्ति और अनेक स्थानोंमें हमारी सब प्रवृत्तियोंका मूल हमारी स्त्रियाँ ही हैं। अतएव स्त्रीजाति हमारे शुभाशुभका मूल है। स्त्रीजातिके महत्त्वका कीर्तन करते समय ये सब बातें कहनेकी प्राचीन प्रथा है, इसीसे हमने भी यहाँपर ये बातें कही हैं । किन्तु इन बातोंका जो लोग व्यवहार करते हैं उनका आन्तरिक भाव यही है कि पुरुष ही मनुष्यजाति है। जो पुरुषोंके लिए शुभाशुभका विधान कर सकता है वही गुरुतर विषय है। स्त्रियाँ पुरुषोंके शुभाशुभका विधान कर सकती हैं, इसीसे उनकी उन्नति और अवनतिका विषय गुरुतर विषय है । किन्तु हमारे कहनेका यह तात्पर्य नहीं है। हमारा कथन यह है कि स्त्रियाँ संख्यामें पुरुषोंके बराबर या उनसे अधिक हैं । इसलिए वे समाजका आधा अंश हैं । वे मर्दोके शुभाशुभका विधान करनेवाली हों या न हों, उनकी उन्नतिसे समाजकी उन्नति है। जैसे पुरुषोंकी उन्नतिसे समाजकी उन्नति है वैसे ही स्त्रियोंकी उन्नतिसे भी समाजकी उन्नति है। क्योंकि स्त्रियाँ समाजका आधा अंश हैं । स्त्री पुरुषोंके

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