पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/६९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गरीबकी हाय दरवाजेपर कभी-कभी भीड़ लगी रहती थी। यह भीड रामगुलाम को पसन्द न यो। मूंगापर उसे ऐसा क्रोध आ रहा था कि यदि उसका वश चलता तो वह इसे कुप मे ढकेल देता। इस तरह- का विचार उठते ही रामगुलामके मनमे गुदगुदी समा गयी और वह बड़ी कठिनलासे अपनी हँसी रोक सका । अहा। वह कुएं में गिरती तो क्या मजेकी बात होती। परन्तु यह चुडल यहाँ से टलती ही नहीं, क्या करूँ। मुन्शीजीके घरमे एक गाय थी, जिसे खली दाना और भूसा तो खूब खिलाया जाता, पर वह सब उसकी हड्डियोंमे मिल जाता, उसका ढॉचा पुष्ट होता जाता था। रामगुलामने उसी गायका गोबर एक हॉडीमे धोला और सबका सब बेचारी गापर उडेल दिया । उसके थोडे बहुत छोटे दर्शकों पर भी डाल दिथे । बेचारी मूंगा लदफद हो गयी और लोम भाग खड़े हुए। कहने लगे यह मुन्शी रामगुलामका दरवाजा है। यहाँ इसी प्रकारका शिष्टाचार किया जाता है। जल्द भाग चलो। नहीं तो अबके इससे भी बढ़कर खातिर की जायगी। इधर भीड़ कम हुई, उधर रामगुलाम घरमे जाकर खूब हँसा और खूब तालियों बजाई। मुन्शीजीने व्यर्थकी भीड़को ऐसे सहजमें और ऐसे सुन्दर रूपसे हटा देनेके उपायपर अपने सुशील लड़केको पीठ ठोंकी । सब लोग तो चम्पत हो गये, पर बेचारी मूंगा ज्योंकी त्यों बैठी रह गयी। दोपहर हुई। मूंगाने कुछ नहीं खाया । सॉश हुई। हजार कहने सुननेसे भी खाना नही खाया। गोचके चौधरीने खड़ी खुशामद की। यहाँ तक कि, मुन्शीजीने हाथतक जोडे पर देवी प्रसन न हुई। निदान मुन्शीजी उठकर मीतर चले गये। वह ५