पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/२०६

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प्रेम निमा सुखदाने यह बातें कुछ ऐसी कठोरतासे कही और मुद्रको ऐसी निर्दयतासे छीन लिया कि दाईसे सह न हो सका। बोली- बहूजी। मुझसे कोई बड़ा अपराध तो नहीं हुआ, बहुत तो पाव घरटेकी देर हुई होगी। इसपर आप इतना बिगड़ रही हैं। तो साफ क्यों नहीं कह देती कि दूसरा दरवाजा देखो। नारायण ने पैदा किया है तो खानेको भी देगा। मजदूरीका अकाल थोड़े ही है। सुखदाने कहा-तो यहाँ तुम्हारी परवाह ही कौन करता है। तुम्हारी जैसी लौछिर्ने गली-गली ठोकरें खाती फिरती हैं। दाईने जवाब दिया-हाँ नारायण आपको कुशलसे रखे । लौंडिने और दाइयाँ आपको बहुत मिलेगी। मुझसे जो कुछ अपराध हो क्षमा कीजियेगा । मैं जाती हूँ। सुखदा--जाकर मरदाने में अपना हिसाब कर लो। दाई-मेरी तरफसे रुद्र बाबूको मिठाइयाँ मँगवा दीजियेगा। इतनेमें इन्द्रमणि भी बाहरसे आ गये, पुछा---क्या है क्या? दाईने कहा--कुछ नही। बहूजीने जवाब दे दिया है, घर जाती हूँ। इन्द्रमणि गृहस्थीके जजालसे इस तरह बचते थे जैसे कोई नने पैरवाला मनुष्य कॉटोसे बचे। उन्हें सारे दिन एक ही जगह खड़े रहना मजूर था, पर कॉटोमे पैर रखनेकी हिम्मत न थी। खिन्न होकर बोले-बात क्या हुई ? सुखदाने कहा--कुछ नहीं ! अपनी इच्छा । जी नही चाहता, नहीं रखते। क्रिसीके हाथों बिक तो नहीं गये।