२०५ महातीर्थ यकायक जब नौके घंटेको आवाज कानमें आयी तो चौक पड़ी और लपकी हुई घरकी ओर चली। सुखदा भरी बैठी थी। दाईको देखते ही त्यौरी बदलकर बोली-क्या बाजार में खो गयी थी। दाई विनयपूर्ण भावसे बोली-एक जान पहचानकी महीसे भेट हो गयी। वह बातें करने लगी। सुखदा इस जवाबसे और भी चिढ़कर बोली-यहाँ दफ्तर जानेको देर हो रही है और तुम्हे सैर सपाटेकी सूझती है । परन्तु दाईने इस समय दबने हीमें कुशल समझी, बच्चेको मोदमे लेने चली, पर सुखदाने झिड़ककर कहा--रहने दो, तुम्हारे बिना वह व्याकुल नही हुआ जाता । दाईने इस आशाको मानना आवश्यक नही समझा । बहूजी का क्रोध उपदा करनेके लिये इससे उपयोगी और कोई उपाय न सूझा । उसने रुद्रमणिको इशारेसे अपने पास बुलाया। वह दोनों हाथ फैलाये लड़खड़ाता हुआ उसकी ओर चला । दाईने उसे गोद में उठा लिया और दरवाजेकी तरफ चली। लेकिन सुखदा बाजकी तरह झपटी और रुद्रको उसकी गोदसे छीनकर बोली- तुम्हारी यह धूर्तता बहुत दिनोंसे देख रही हूँ। यह तमाशे किसी औरको दिखाइयो । यहाँ जी भर गया । दाई रुद्रपर जान देती थी और समझती थी कि सुखदा इस चातको जानती है। उसकी समझमे सुखदा और उसके बीच यह ऐसा मजबूत सम्बन्ध' था जिसे साधारण झटके तोड़ न सकते थे। यही कारण था कि सुखदाके कटुवचनोंको सुनकर भी उसे यह विश्वास न होता था कि मुझे निकालनेपर प्रस्तुत है । पर
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