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प्रेम पंचमी
( २ )

एक विस्तृत मैदान था। जहाँ तक निगाह जाती, हरियाली की छटा दिखाई देती। कहीं नालों का मधुर कलरव था, कहीं झरनों का मंद गान; कहीं वृक्षों के सुखद पुंज, कही रेत के सपाट मैदान। बड़ा सुरम्य, मनोहर दृश्य था।

यहाँ बड़े तेज़ नखोवाले पशु थे, जिनको सूरत देखकर टामी का कलेजा दहल उठता। उन्होंने टामी की कुछ परवा न की। वे आपस में नित्य लड़ा करते; नित्य ख़ून की नदी बहा करती थी। टामी ने देखा, यहाँ इन भयंकर जंतुओं से पेश न पा सकूँगा। उसने कौशल से काम लेना शुरू किया। जब दो लड़नेवाले पशुओं में एक घायल और मुर्दा होकर गिर पड़ता, तो टामी लपककर मांस का कोई टुकड़ा ले भागता और एकांत में बैठकर खाता। विजयी पशु विजय के उन्माद में उसे तुच्छ समझकर कुछ न बोलता।

अब क्या था, टामी के पौ-बारह हो गए। सदा दिवाली रहने लगी। न गुड़ की कमी थी, न गेहूँ की। नित नए पदार्थ उड़ाता और वृक्षों के नीचे आनंद से सोता। उसने ऐसे सुख स्वर्ग की कल्पना भी न की थी। वह मरकर नहीं, जीते-जी स्वर्ग पा गया।

थोड़े ही दिनों में पौष्टिक पदार्थों के सेवन से टामी की चेष्टा ही कुछ और हो गई। उसका शरीर तेजस्वी और सुसंगठित हो गया। अब वह छोटे-मोटे जीवों पर स्वयं हाथ साफ करने लगा। जंगल के जंतु तब चौके, और उसे वहाँ से भगा देने का